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________________ अनेकान्त-58/1-2 ज्ञात होता है कि उन्होंने जमीन से जुड़े व्यक्तियों को ध्यान में रखकर धर्मानुकूल सरल शब्दों में अपनी बात कही है। उन्होंने ऐसा कोई हवाई फायर नहीं किया है जो आम आदमी की समझ से दूर हो। जहाँ आचार्य कुन्दकुन्द निश्चय सम्यग्दर्शन की चर्चा करते हैं और आचार्य उमास्वामी तत्त्वों के श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहते हैं वहीं आचार्य समन्तभद्र परमार्थभूत आप्त, आगम और गुरु के श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहते हैं। साथ ही आठ अङ्गों सहित, तीन मूढ़ताओं और आठ मदों से रहित होना भी अपेक्षित है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि आचार्य समन्तभद्र की दृष्टि में दीपक की लौ की तरह एक मात्र आप्त, आगम और गुरु के प्रति समर्पण होना ही सम्यग्दर्शन है। ऐसा नहीं है कि इधर सच्चे आप्त, आगम और गुरु के प्रति भी समर्पित और उधर गगी-द्वेषी देव, शास्त्र और गुरु के प्रति भी समर्पित। तीन मूढ़ताओं का निषेध कर उन्होंने गंगा गये सो गंगादास और जमना गये सो जमनादास जैसी दोलायमान स्थिति से श्रावकों को सावधान किया है। आठ मदों के निषेध के मूल में वे यह कहना चाहते हैं कि सम्यग्दृष्टि जीव को कुल और जाति आदि के अहंकार से दूर रहना चाहिये, क्योंकि कुल और जाति आदि का सम्बन्ध मात्र शरीर से है आत्मा से नहीं। अन्य पद भी इह लौकिक ही हैं, स्थायी नहीं। इसी जन्म के साथ छूट जाने वाले हैं। सम्यग्दर्शन के आठों अङ्गो सहित होने का तात्पर्य यह है कि आधे-अधूरे का कोई अर्थ नही पूर्णता में ही फलसिद्धि है। मशीन हा एक भी पेंच-पुर्जा इधर-उधर हुआ नहीं कि उत्पादन या तो रुक जायेगा या फिर उसमें खोट आ जायेगी, ठीक वैसे ही जैसे एक अक्षर कम होने पर मन्त्र विष की वेदना को दूर करने में समर्थ नहीं होता है। ___ आचार्य समन्तभद्र ने सम्यग्दर्शन के लक्षण में 'आप्त' शब्द का प्रयोग किया है, 'देव' आदि का नहीं। आप्त शब्द में प्रमाणिकता है, जबकि देव शब्द चतुर्गति में भ्रमण करने वाले रागी-द्वेषी का वाचक भी हो सकता है। ईश्वर शब्द का प्रयोग करने से सष्टिकर्ता का बोध हो जाता, जो जैनदर्शन में न तो अभीष्ट है और न ही जैन सिद्धान्तों के अनुकूल ही है। इसी प्रकार ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि शब्दों का प्रयोग करने पर सृष्टि की उत्पत्ति, पालन और संहार करने वाले उक्त देवताओं का बोध हो जाता। अतः आचार्य समन्तभद्र
SR No.538058
Book TitleAnekant 2005 Book 58 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2005
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size9 MB
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