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अनेकान्त-58/1-2
की शरण का प्राप्त हात हुये अष्ट मूलगुणों को धारण करना दार्शनिक प्रतिमा है। शल्य रहित निरतिचार बारह व्रतों का पालन करना व्रत प्रतिमा है। यथोक्त नियमपूर्वक तीनों कालों में वन्दना करना सामायिक प्रतिमा है। पर्व के दिनों में प्रोषध सम्बन्धी नियमों का पालन करना प्रोषधोपवास प्रतिमा है। अपक्व, मूल, फल, शाक, शाखा, करीर, कन्द, प्रसून और बीज को न खाना सचित्तत्याग प्रतिमा है। रात्रि में चतुर्विध आहार न करना रात्रिभुक्तित्याग प्रतिमा है। काम-सेवन से विरत होना ब्रह्मचर्य प्रतिमा है। प्राणघात के कारण खेती, व्यापार आदि आरम्भ से निवृत्त होना आरम्भत्याग प्रतिमा है। दश प्रकार के बाह्य परिग्रहों से ममत्व त्यागकर आत्मस्वरूप में स्थित होना परिग्रहत्याग प्रतिमा है। आरम्भजनित ऐहिक कार्यो में अनुमति न देना अनुमतित्याग प्रतिमा है और वन में जाकर मुनियों के समीप व्रत ग्रहणकर भिक्षा से प्राप्त भोजन करते हुये एक वस्त्र धारणकर तपश्चरण करना उद्दिष्टत्याग प्रतिमा है।
पाप जीव का शत्रु है और पुण्य जीव का मित्र अथवा हितकारी है, ऐसा विचार करता हुआ श्रावक यदि आगम को जानता है तो वह कल्याण का भाजन होता है और सभी पदार्थो की सिद्धि करता है।
अन्त में आचार्य समन्तभद्र ने कामना की है कि- सम्यग्दर्शन रूपी लक्ष्मी सुख की भूमि होती हुई। मुझे उसी तरह सुखी करे जिस तरह सुख की भूमि कामिनी कामी पुरुष को सुखी करती है। सम्यग्दर्शन रूपी लक्ष्मी निर्दोष शील (तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत) से युक्त होती हुई मुझे उसी तरह रक्षित करे जिस तरह निर्दोष शीलवती माता पुत्र को रक्षित करती है। सम्यग्दर्शन रूपी लक्ष्मी मूलगुण रूपी अलङ्कारों से भूषित मुझे उसी तरह पवित्र करे जिस प्रकार गुणभूषित कन्या कुल को पवित्र करती है।
सुखयतु सुखभूमिः कामिनं कामिनीव सुतमिव जननी मां शुद्धशीला भुनक्तु। कुलमिव गुणभूषा कन्यका सम्पुनीताजिंनपतिपदपद्मप्रेक्षिणी दृष्टिलक्ष्मीः ।। आचार्य समन्तभद्रकृत श्रावकाचार के उपर्युक्त विस्तृत विवेचन से हमें