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________________ अनेकान्त-58/1-2 उसके बाहर प्रेपण, शब्द, आनयन, रूपाभिव्यक्ति और पुद्गलक्षेप करना- ये पाँच उसके अतिचार हैं। मर्यादा के भीतर और वाहर सम्पूर्ण रूप से पाँच पापों का एक निश्चित अवधि के लिये त्याग करना सामायिक है। यह प्रतिदिन की जाती है। इसमें आरम्भादि सभी परिग्रहों का त्याग हो जाने से श्रावक उपसर्ग के कारण कपड़े में लिपटे हुये मुनि के समान हो जाता है। वह गृहीत अनुष्ठान को न छोड़ते हुये मौन धारण करता है तथा शीतोष्णादि परीपहों और उपसर्ग को भी सहन करता है। इस अवधि में श्रावक दुःख रूप संसार के स्वरूप और उसके विपरीत मोक्ष के स्वरूप का चिन्तन करता है। मन, वचन और काय की खोटी क्रिया, अनादर तथा अस्मरण- ये पाँच सामायिक के अतिचार हैं। चतुर्दशी और अष्टमी के दिन सर्वदा के लिये व्रत की भावना से चार प्रकार के आहार का त्याग करना प्रोषधोपवास है। उपवास के दिन पाँच पापों के साथ ही आरम्भ और श्रृंगारादि का भी त्याग किया जाता है। उपवास करने वाला श्रावक उक्त अवधि में धर्मरूपी अमृत का स्वयं सेवन करता है और दूसरों को कराता है। अथवा प्रमाद का त्याग कर ज्ञान-ध्यान में लीन हो जाता है। प्रोपधोपवास में धारणा और पारणा के दिन भी एक-एक बार ही आहार ग्रहण किया जाता है। बिना देखे और बिना शोधे पूजादि उपकरणों को ग्रहण करना, मल-मूत्रादि का विसर्जन करना, विस्तर आदि को विछाना, अनादर और अस्मरण- ये पाँच इसके अतिचार हैं। प्रतिदान की अपेक्षा किये बिना गुणों के खजाना गृहत्यागी तपस्वी को विधि-द्रव्य आदि सम्पत्ति के अनुसार धर्म के निमित्त दान देना वैयावृत्य है। इसके अतिरिक्त गुणो के अनुराग से संयमी के जीवन में आई हुई विपत्तियों के निराकरण हेतु पैरों आदि का सम्मर्दन करना भी वैयावृत्य है। सप्त गुणों सहित शुद्ध दाता के द्वारा गृह सम्बन्धी कार्य तथा खेती आदि के आरम्भ से रहित तथा सम्यग्दर्शनादि गुणों सहित मुनियों को नवधाभक्तिपूर्वक आहार आदि देना दान है। दान की विशेषता यह है कि जिस प्रकार जल खून को धो देता है उसी प्रकार मुनियों को दिया गया दान गृहस्थी के कार्यो से सञ्चित
SR No.538058
Book TitleAnekant 2005 Book 58 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2005
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size9 MB
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