________________
अनेकान्त-58/1-2
व्यापार, हिंसा, आरम्भ और ठगविद्या आदि की कथाओं के प्रसङ्ग उपस्थित करना पापोपदेश नामक अनर्थदण्ड है। फरसा, तलवार, कुदाली, अग्नि, हथियार, विष और जंजीर आदि हिंसा के हेतुओं का दान करना हिंसादान है। द्वेषवशात् किसी प्राणी के वध, बन्धन और छेद आदि का तथा रागवशात् परस्त्री आदि का चिन्तन अपध्यान है। आरम्भ परिग्रह, साहस, मिथ्यात्व, द्वेष, राग, अहंकार और काम के द्वारा चित्त को कलुषित करने वाले शास्त्रों का सुनना दुःश्रुति है। बिना प्रयोजन के पृथिवी, जल, अग्नि और वायु का आरम्भ करना, वनस्पति का छेदना, स्वयं घूमना और दूसरों को घुमाना प्रमादचर्या है। राग के वशीभूत हास-परिहास में गन्दे शब्दों का प्रयोग करना, शरीर की कुचेष्टा करना, अधिक बोलना, भोगोपभोग सम्बन्धी सामग्री का अधिक मात्रा में संग्रह करना और निष्प्रयोजन बिना विचारे किसी कार्य को प्रारम्भ करनाये पाँच अनर्थदण्डविरति व्रत के अतिचार हैं। .
परिग्रह परिमाणव्रत की सीमा के भीतर विषय सम्बन्धी राग से होने वाली आसक्ति को कृश करने के लिये प्रयोजनभूत भी इन्द्रिय-विषयों का परिसीमन करना भोगोपभोगपरिमाण व्रत है। अणुव्रती को प्रमाद से बचने के लिये मद्य, मांस, मधु और वहुत हिंसा होने से मूली, गीला अदरक, मक्खन, नीम के फूल और केवड़ा के फूल आदि का त्याग कर देना चाहिये। साथ ही अहितकारी और गोमूत्रादि अनुपसेव्य वस्तुओं का भी त्याग कर देना चाहिये। इन वस्तुओं का जब आजीवन त्याग किया जाता है तो वह यम कहलाता है और जब एक निश्चित अवधि के लिये त्याग किया जाता है तो वह नियम कहलाता है। विषय रूपी विष में आदर रखना, भोगे हुये विषयों का पुनः पुनः स्मरण करना, वर्तमान भोगों में अधिक आकांक्षा रखना, आगामी विषयों में अधिक तृष्णा रखना और वर्तमान विपयो का अति आसक्ति से अनुभव करना ये पाँच भोगोपभोगपरिमाण व्रत के अतिचार हैं।
देशावकाशिक, सामायिक, प्रोपद्योपवास और वैयावृत्य- ये चार शिक्षाव्रत हैं। अणुव्रती श्रावक द्वारा मर्यादित क्षेत्र में भी प्रतिदिन घड़ी-घण्टे के लिये देश को संकुचित करना देशावकाशिकव्रत है। मर्यादित क्षेत्र के भीतर रहते हुये