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अनेकान्त-58/1-2
न स्वयं बोलना और न दूसरों से बुलवाना तथा ऐसा सत्य भी न स्वयं बोलना है और न दूसरों से बुलवाना है जो दूसरों के प्राणघात के लिये हो वह स्थूलं झूठ त्याग रूप सत्याणुव्रत है। मिथ्योपदेश, रहोभ्याख्यान, पैशून्य, कूटलेख लिखना और धरोहर को हड़पना-ये पाँच इसके अतिचार हैं। किसी की रखी हुई, गिरी हुई अथवा भूली हुई वस्तु को बिना दिये हुये न स्वयं ग्रहण करना
और न उठाकर दूसरों को देना स्थूल स्तेय परित्याग रूप अचौर्याणुव्रत है। चौर प्रयोग, चौरार्थादान, विलोप, सदृश मिश्रण और हीनाधिक विनिमान-.ये पाँच इसके अतिचार हैं। पाप के भय से न स्वयं परस्त्री का गमन करना और न दूसरों को कराना परस्त्री त्याग रूप स्वदारसन्तोप नाम का अणुव्रत है। अन्यविवाहकरण, अनङ्गक्रीड़ा, विटत्व, विपुलतृपा और इत्वरिकागमन- ये पाँच इसके अतिचार हैं। धन, धान्य आदि परिग्रह का परिमाण कर उससे अधिक वस्तुओं में इच्छा न करना परिमित परिग्रह अथवा इच्छा परिमाण नाम का अणुव्रत है। अतिवाहन, अतिसंग्रह, अतिविस्मय, अतिलोभ और अतिभारारोपण ये पाँच इसके अतिचार हैं। इन पाँच अणुव्रतों का अतिचार रहित पालन करने से स्वर्ग की प्राप्ति होती है।
इसी क्रम में आचार्य समन्तभद्र ने श्रावक के आठ मूलगुणों का उल्लेख किया है। उनके अनुसार मद्य, मांस और मघु-इन तीन मकारों के त्याग के साथ पाँच अणुव्रतों का पालन करना-ये आठ, श्रावक के मूलगुण हैं। ___ मूलगुणों की वृद्धि करने वाले दिग्व्रत, अनर्थदण्डव्रत और भोगोपभोगपरिमाणव्रत- ये तीन गुणव्रत हैं। सूक्ष्म पापों की निवृत्ति के लिये दशों दिशाओं में प्रसिद्ध नदी, समुद्र आदि के बाहर आजीवन न जाने की प्रतिज्ञा करना दिग्बत है। प्रमादवश ऊपर, नीचे अथवा तिर्यग दिशा का उल्लंघन करना, क्षेत्रवृद्धि करना और कृतमर्यादा का विस्मरण करना- ये पाँच उसके अतिचार हैं।
दिग्व्रत में की गई मर्यादा के भीतर प्रयोजन रहित पाप सहित योगों से निवृत्त होना अनर्थदण्डव्रत है। पापोपदेश, हिंसादान, अपध्यान, दुःश्रुति और प्रमादचर्या-ये पाँच अनर्थदण्ड हैं। पशुओं को कष्ट पहुँचाने वाली क्रियायें,