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अनेकान्त 58/3-4
सल्लेखना और समाधिमरण ये दोनों पर्यायवायी शब्द हैं। आचार्य समन्तभद्र रत्नकरण्ड श्रावकाचार में सल्लेखना का लक्षण लिखते हैं
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उपसर्गे दुर्भिक्षे जरसि रूजायां च निःप्रतिकारे ।
धर्माय तनुविमोचनमाहुः सल्लेखनामार्याः । । 122 ।। रत्न. श्रा. अर्थात् निष्प्रतीकार उपसर्ग, दुर्भिक्ष, बुढ़ापा और रोग के उपस्थित होने पर धर्म की रक्षा के लिए, शरीर के परित्याग का नाम सल्लेखना है । सल्लेखना तुरन्त बाद समाधिमरण ग्रहण करने की प्रेरणा दी है ।
अन्तः क्रियाधिकरणं तपः फलं सकलदर्शिनः स्तुवते । तस्माद्यावद्विभवं समाधिमरणे प्रयतितव्यम् ।। 128 ।। रत्न. श्रा.
जीवन के अन्त समय में समाधिरूप क्रिया का आश्रय लेना ही जीवन भर की तपस्या का फल है। ऐसा सर्वदर्शी भगवन्तों ने कहा है ।
आचार्य शिवकोटि ने सल्लेखना और समाधिमरण भेद नहीं रहने दिया। आचार्य उमास्वामी ने भी सल्लेखना और समाधिमरण को एक ही अर्थ में प्रयुक्त किया है ।
समाधिमरण व्रत-तप का फल है, जैसा कि कहा भी है
तप्तस्य तपसश्चापि पालितस्य व्रतस्य च ।
पठितस्य श्रुतस्यापि फलं मृत्युः समाधिना । । मृत्यु महोत्सव
अर्थात् तपे हुए तप, पालन किए हुए व्रत, पढ़े हुए शास्त्रों का फल समाधिमरण में है बिना समाधिमरण के ये सब व्यर्थ है ।
इसलिए जब तक शक्ति रहे, तब तक समाधिमरण में प्रयत्न करना चाहिए ।
आचार्य शिवकोटि ने समाधिमरण के कर्ता की स्तुति करते हुए कहा है कि जिन्होंने भगवती आराधना को पूर्ण किया, वे पुण्यशाली और ज्ञानी हैं और उन्हें जो प्राप्त करने योग्य था, उसे प्राप्त कर लिया ।