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अनेकान्त 58/3-4
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सल्लेखक/क्षपक एक तीर्थ है, क्योंकि संसार से पार उतारने में निमित्त है। उसमें स्नान करने से पाप कर्मरूपी मल दूर होता है। अतः जो दर्शक समस्त आदर भक्ति के साथ उस महातीर्थ में स्नान करते हैं, वे भी कृतकृत्य होते हैं तथा वे सौभाग्यशाली हैं। पण्डित आशाधर जी ने कहा है- “जिस महासाधक ने संसार परम्परा को सम्पूर्ण रूप से उन्मूलन करने वाले समाधिमरण को धारण किया है, उसने धर्मरूपी महान् निधि को पर-भव में जाने के लिए साथ ले लिया है। इस जीव ने अनन्त बार मरण प्राप्त किया, किन्तु समाधि सहित पुण्य मरण नही हुआ। यदि समाधि सहित पुण्य-मरण होता, तो यह आत्मा संसार रूपी पिंजड़े में कभी भी बन्द होकर नहीं रहता। भगवती आराधना में ही कहा गया है कि जो जीव एक पर्याय में भी समाधिपूर्वक मरण करता है, वह सात-आठ पर्याय से अधिक संसार परिभ्रमण नहीं करता है। कहा है- जो महान् फल बड़े बड़े व्रती संयमी आदि को काय-क्लेश आदि उत्कृष्ट तप तथा अहिंसा आदि महाव्रतों को धारण करने से प्राप्त नहीं होता, वह फल अन्त समय में समाधिपूर्वक शरीर त्यागने से प्राप्त होता है।
उक्त भावों को धारण कर ही श्रुतकेवली भद्रबाहु स्वामी ने सल्लेखना/समाधि ग्रहण की थी। .
बृहत्कथाकोष में बताया गया है कि भद्रबाहु की समाधि अवन्ति (उज्जयिनी) में ही हुई थी यथा
प्राप्य भाद्रपदं देशं श्रीमदुज्जयिनीभवम् । चकाराऽनशनं धीरः स दिनानि बहून्यलम् ।। समाधिमरणं प्राप्य भद्रबाहुर्दिवं ययौ।
(हरिषेणकृत वृहत्कथाकोष) अर्थात् भद्रबाहु अवन्ति के भद्रपाद नामक स्थान में विराजे, वहीं उनका अनशन की अवस्था में समाधिमरण हो गया।
रत्ननन्दी ने भी यही लिखा है कि भद्रबाहु दक्षिण की ओर बढ़े किन्तु