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________________ अनेकान्त 58/3-4 121 में विहरण कर रहा था। यही अभिमत आचार्य हेमचन्द्र सूरि का है। दिगम्बरीय साहित्य में श्रुतकेवली भद्रबाहु के साथ उनके शिष्य चन्द्रगुप्त का उल्लेख' तो ही है साथ में उत्तर में दुष्काल पड़ने के कारण दक्षिण में विहार का प्रसंग तो बहुत विस्तार से प्रतिपादित किया गया है। श्री भद्रबाहु ने कथानक में प्रसंग है कि एक दिन आचार्य श्री भद्रबाहु ने गोचरी के लिए नगर में जिनदास श्रेष्ठी के घर में प्रवेश किए तो वहाँ पालने में लेटे हुए बालक ने देखकर कहा, 'जाओ जाओ' तब भद्रबाहु ने उससे पूछा कितने समय के लिए? उस अवोध बालक ने द्वादश वर्ष के लिए जाओ, ऐसा कहा। आचार्य बिना आहार ग्रहण किए उद्यान में लौटे वहाँ समस्त संघ को बुलाकर बताया कि यहाँ मालव (अवन्ति उज्जयिनी) देश में 12 वर्ष का दुष्काल पड़ेगा। समस्त संघ दक्षिण की विहार करने की तैयारी में जुट गया। अनन्तर 12000 साधुओं के साथ दक्षिण की ओर जब भद्रबाहु आगे बढ़े तब अनेक श्रेष्ठियों ने रोकने का प्रयत्न किया, किन्तु वे वहाँ नहीं रुके। संघ के साथ श्रुतकेवली भद्रबाहु धन, जन, धान्य, सुवर्ण, गाय, भैंस आदि पदार्थो से भरे हुए अनेक नगरों में होते हुए पृथिवी तल के आभूषण रूप इस श्रवण बेलगोल के चन्द्रगिरि (कटवप्र) नामक पर्वत पर पहुंचे। इसी पर्वत पर उन्हें निमित्त ज्ञान से ज्ञात हो गया कि मेरी आयु अल्प है, ऐसा समझकर उन्होने समाधिरण करने का विचार बनाया। भगवान् जिनेन्द्र की देशना के आधार पर आचार्य लिखते हैं मन्दाक्षत्वेऽतिवृद्धत्वे चोपसर्गे व्रतक्षये, दुर्भिक्षे तीव्ररोगे चासाध्ये कायबलात्यते। धर्मध्यानतनूत्सर्ग हीयमानादिके सति, संन्यासविधिना दक्षैर्मृत्युः साध्यः शिवाप्तये ।। इन्द्रियों की शक्ति मन्द हो जाने पर अतिवृद्धपना एवं उपसर्ग आ जाने पर शरीरिक बलक्षीण होने पर तथा धर्मध्यान और कायोत्सर्ग करने की शक्ति हीन हो जाने पर सल्लेखना अवश्य ग्रहण करना चाहिए।
SR No.538058
Book TitleAnekant 2005 Book 58 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2005
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size9 MB
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