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________________ 116 अनेकान्त 58/3-- गया है कि यह कटवप्र ज्ञानोदय एवं आध्यात्मिक साधना के लिए आने वाले धर्मनिष्ठ सन्तों का प्रिय बसेरा था। समाधि-मरण की यह परम्परा यहाँ बारहवीं सदी तक चलती रही। उस समय यह पर्वत कोलाहल-रहित एक शान्त स्थान था। बाद में यात्रियों का आवागमन बढ़ जाने पर यह क्रम टूट सा गया। यहाँ के शिलालेखों से ज्ञात होता है कि आचार्य कुन्दकुन्द, उमास्वामी, समन्तभद्र, शिवकोटि, पूज्यपाद, गोल्लाचार्य, प्रभाचन्द्र, वादिराज आदि की चरग-रज से यह स्थान पवित्र होता रहा है। आचार्य भद्रबाहु और मुनि चन्द्रगुप्त के देहावसान के बाद भी जिन महानात्माओं ने यहाँ से समाधि प्राप्त की, उनमें आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त-चक्रवर्ती, आचार्य धर्मनिष्ठ, मॉ काललदेवी, महाराजा विष्णुवर्धन के प्रतापी महादण्डनायक गंगराज, उनकी माँ पोचब्बे, कर्नाटक-माता नाम से प्रसिद्ध दानशीला अत्तिमब्बे, जैन धर्म की प्रभावक महिला-रत्न महारानी शान्तला की माँ माचिकब्बे, तीन राजवंशों गंग, राष्ट्रकूट एवं विजय नगर के राजा क्रमशः मारसिंह, इन्द्र और देवराज आदि के नाम उल्लेख्य हैं। तपश्चरण और समाधि से पवित्र इस पर्वत को तीर्थगिरि और ऋषिगिरि के नाम से भी जाना जाता है। चन्द्रगिरि पर द्राविड़ वास्तु-शैली से निर्मित चौदह कलापूर्ण मंदिर हैं, जो एक परकोटे में बने हुए हैं। यह कोटा या परकोटा 'सुत्तालय' कहलाता है। यहाँ तक 225 कम ऊँचाई वाली सीढ़ियों से आसानी से पहुँचा जा सकता है। यहाँ का सबसे पुराना मन्दिर चन्द्रगुप्त बसदि है। यह मन्दिर दक्षिणाभिमुखी है। इस मंदिर के एक जलान्ध्र में 60 चित्र-फलक हैं, जिनमें श्रुतकेवली भद्रबाहु और सम्राट चन्द्रगुप्त के जीवन के दृश्य उकेरे गए हैं। यह चित्रफलक कारीगरी का एक उत्कृष्ट नमूना है। यहाँ के सभी मन्दिरों में विराजमान तीर्थकर प्रतिमाओं में गजब का आकर्षण है। यक्ष-यक्षिणियों की मूर्तियों की सूक्ष्म पच्चीकारी को देखकर कलाकारों की छैनी का लोहा मानना पड़ता है। सभी मन्दिरों को तीन
SR No.538058
Book TitleAnekant 2005 Book 58 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2005
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size9 MB
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