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________________ कटवप्र : एक अप्रतिम समाधि-स्थल - प्रा. नरेन्द्रप्रकाश जैन अतिशय क्षेत्र श्रवणबेलगोल स्थित चिक्कवेट्ट का प्राचीन नाम कटवप्र (संस्कृत) या कलवप्पु (कन्नड़) है। 'कट' या 'कल' शब्द का अर्थ है 'मृत्यु' तथा 'वप्र' या 'वप्पु' पर्वत को कहते हैं। इसका इतिहास 2300 वर्ष प्राचीन है। ईसा पूर्व तीसरी सदी में भगवान् महावीर की परम्परा के अन्तिम श्रुतकेवली आचार्य भद्रबाहु उत्तर से चलकर यहाँ आए थे और अपनी अल्पायु शेष जानकर उन्होंने यहाँ काय और कषाय को कृश करते हुए सल्लेखना विधि से देहोत्सर्ग किया था। सम्राट् चन्द्रगुप्त भी अपना विशाल साम्राज्य अपने पुत्र बिम्बसार को सौंपकर 48 वर्ष की उम्र में आचार्य भद्रबाहु और उनके संघस्थ दो हजार मुनियों की सेवा-परिचर्या करते हुए यहाँ आकर उनके शिष्य बन गए थे। अपने दीक्षा-गुरू के महाप्रयाण के बारह वर्ष बाद उन्होंने भी समाधिपूर्वक देह-त्याग का आदर्श प्रस्तुत किया था। बाद में उनकी स्मृति में ही कटवप्र का एक नाम 'चन्द्रगिरि' प्रचलित हो गया। ईसा-पूर्व तीसरी शताब्दी से ईसा की छठवीं शताब्दी तक जैन श्रमणों (मुनियों) के निरन्तर आवागमन होते रहने से ही इस श्रीक्षेत्र का 'श्रवणबेलगोल' नाम प्रसिद्ध हुआ। यहाँ जैनों की बस्ती थी, इसलिए लोग इसे 'जैन बद्री' भी कहते हैं। चन्द्रगिरि पर ध्यान करने वाले मुनि आहार के लिए नीचे बस्ती में आते थे। यहाँ पर उपलब्ध पाँच सौ से अधिक शिलालेखों से जैन धर्म और उसके अनुयायियों का गौरव प्रकट होता है। ईसवी सन् 600 के एक शिलालेख में कहा गया है कि इसी पवित्र कटवप्र की शीतल शिलाओं पर आचार्य भद्रबाहु और मुनि चन्द्रगुप्त का अनुसरण करते हुए सात सौ मुनि महाराजों ने तपश्चरणपूर्वक देह-त्याग का मार्ग अंगीकार किया। प्राचीन इतिवृत्त और पुराणों में कहा
SR No.538058
Book TitleAnekant 2005 Book 58 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2005
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size9 MB
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