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________________ 20 अनेकान्त-58/1-2 होता है। __यह सम्यग्दर्शन जहाँ आठ अङ्गों सहित होता है, वहीं लोकमूढ़ता, देवमूढ़ता और पाखण्डिमूढ़ता (गुरुमूढ़ता)- इन तीन मूढ़ताओं तथा ज्ञान, पूजा, कुल, जाति, बल, ऋद्धि, तप और शरीर-इन आठ के आश्रय से होने वाले मदों से रहित होता है। उपर्युक्त मदों से उन्मत्त चित्त वाला पुरुष यदि रत्नत्रय रूप धर्म में स्थित जीवों को तिरस्कृत करता है तो वह अपने धर्म को ही तिरस्कृत करता है। क्योंकि धर्मात्माओं के बिना धर्म नहीं होता है। अतः धर्मात्माओ का तिरस्कार करना उचित नहीं है। ज्ञानादि मदों के न करने की सलाह इसलिये भी आचार्य समन्तभद्र दे रहे हैं कि भाई! यदि पाप को रोकने वाली रत्नत्रय रूप धर्म तेरे पास है तो अन्य सम्पत्तियों से तुझे क्या लेना-देना? सुख की प्राप्ति तुझे स्वतः होगी ही और यदि मिथ्यात्व आदि पापों का आनव है तो भी अन्य सम्पत्तियो से क्या लेना-देना? क्योंकि पापानव के फलस्वरूप तुझे दुःख की प्राप्ति होनी ही है। वस्तुतः धर्म और अधर्म ही क्रमशः सुख और दुःख के कारण हैं। ज्ञानादि का मद सुख का कारण नहीं है। एक मात्र सम्यग्दर्शन से युक्त चाण्डाल भी ढकी हुई अग्नि के समान तेजस्वी होता है और देवताओं के द्वारा पूज्य भी। अधिक क्या कहें? धर्म के कारण कुत्ता भी देव हो जाता है और अधर्म के कारण देव भी कुत्ता हो जाता है। सम्यग्दृष्टि जीव भय, आशा और लोभ के वशीभूत होकर कुगुरु, कुदेव और कुशास्त्र का सम्मान नहीं करता है। यह सम्यग्दर्शन मोक्षमार्ग में खेवटिया के समान है। क्योंकि इसके अभाव में सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की उत्पत्ति, स्थिति, वृद्धि एवं स्वर्ग-मोक्षादि रूप फल की प्राप्ति वैसे ही नहीं होती है जैसे बीज के अभाव में वृक्ष की उत्पत्ति आदि नहीं होती है। मोही मुनि से मोक्षमार्ग में स्थित निर्मोही गृहस्थ श्रेष्ठ है। इसीलिये तो यह कथन यथार्थ है कि सम्यक्त्व के समान कल्याणकारी और मिथ्यात्व के समान विनाशकारी तीनों लोकों और तीनों कालों में कोई अन्य वस्तु नहीं है। सम्यग्दर्शन का माहात्म्य तो यह है कि अव्रती सम्यग्दृष्टि भी नारक, तिर्यञ्च,
SR No.538058
Book TitleAnekant 2005 Book 58 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2005
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size9 MB
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