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अनेकान्त-58/1-2
है। अन्त में श्रावक के पडावश्यकों में से एक महत्त्वपूर्ण आवश्यक कर्म दान का उल्लेख किया है।" ___ आचार्य कुन्दकुन्द एवं आचार्य उमास्वामी के पश्चात् आचार्य समन्तभद्र ने श्रावकाचार का गम्भीर और साङ्गोपाङ्ग विवेचन किया है, जो विविध श्रावकाचारों के मध्य एक दीप-स्तम्भ की तरह आज भी बेजोड़ है। उसका विस्तृत विवेचन इस प्रकार है
आचार्य समन्तभद्रकृत रत्नकरण्डश्रावकाचार में 150 श्लोक हैं। यह पाँच परिच्छेदों में विभक्त है। प्रारम्भ में सर्वप्रथम वर्द्धमान स्वामी को नमस्कार करके कर्मो का नाश करने वाले उस समीचीन धर्म का उपदेश करने की प्रतिज्ञा की है, जो जीवों को संसार के दुःखों से निकालकर स्वर्ग-मोक्षादि रूप उत्तम सुख में स्थापित करता है और ऐसे धर्म की बढ़ते क्रम से तीन श्रेणियाँ निर्धारित की हैं-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र। ये तीनों भगवान् जिनेन्द्रदेव द्वारा कथित हैं। ___ इनमें से परमार्थभूत आप्त, आगम और गुरु का तीन मूढ़ताओं से रहित, आठ अङ्गों सहित और आठ प्रकार के मदों से रहित होकर श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। आप्त नियम से जन्म-जरा आदि अठारह दोषों से रहित, सर्वज्ञ और आगम का स्वामी होता है। आगम की विशेषता यह होती है कि वह भगवान् जिनेन्द्र देव के द्वारा कथित होता है। अन्य मतावलम्बियों द्वारा खण्डित नहीं होता है। प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रमाणों के द्वारा विरोध रहित होता है। तत्त्वों का उपदेश करने वाला, सबका हितकारी और मिथ्यामार्ग का निराकरण करने वाला होता है। गुरु-विषयों की आशा, आरम्भ और परिग्रह से रहित होता है तथा ज्ञान, ध्यान और तप यें तल्लीन रहता है। ऐसे आप्त, आगम और गुरु का निःशङ्कित, निःकाशित, निर्विचिकित्सा, अमूढदृष्टि, उपगृन स्थितीकरण, वात्सल्य और प्रभावना-इन आठ अङ्गों सहित श्रद्धान :
आवश्यक है। इनमें से एक अङ्ग की भी न्यूनता नहीं होनी चाहिये, अजिस प्रकार एक अक्षर रहित मन्त्र विष की वेदना को नाश करने में समर्थ : होता है, वैसे ही अङ्गहीन सम्यग्दर्शन जन्म-सन्तति को नष्ट करने में समर्थ नह