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अनेकान्त-58/1-2
प्ररूपण किया है, वह अद्वितीय है और उन्हें एक उत्कृष्ट दार्शनिक आचार्य के रूप में स्थापित करता है। जैन तर्कविद्या के वे प्रथम आचार्य हैं। उन्होंने अपनी इसी तार्किक बुद्धि के आधार पर विभिन्न नगरों में विचरण करते हुये अनेक विद्वानों को पराजित किया था, जिसका उल्लेख श्रवणबेलगोल के 54वें शिलालेख में इस प्रकार अङ्कित है
पूर्वं पाटलिपुत्रमध्यनगरे भेरी मया ताडिता, पश्चान्मालवसिन्धुठक्कविषये काञ्चीपुरे वैदिशे। प्राप्तोऽहं करहाटकं बहुभटं विद्योत्कटं संकटं,
वादार्थी विराम्यहं नरपते शार्दूलविक्रीडितम्।।' पं. जुगलकिशोर मुख्तार ने स्वामी समन्तभद्र पर विस्तार से विचार किया
आचार्य समन्तभद्र ने उपर्युक्त जिन कृतियों का लेखन किया है, उनमें श्रावक के आचार का विस्तार से विवेचन करने वाली उनकी एक मात्र कृति रत्नकरण्डश्रावकाचार है। पं. पन्नालाल 'वसन्त' साहित्याचार्य ने इसे उपलब्ध श्रावकाचारों में सबसे प्राचीन और सुसम्बद्ध श्रावकाचार माना है।' जो वस्तुतः सत्य एवं तथ्य है। इससे पूर्व आचार्य कुन्दकुन्द के चारित्रपाहड में श्रावकाचार सम्बन्धी विवेचन मात्र छह गाथाओं में उपलब्ध है, जिसमें चारित्र के सम्यक्त्वचरण चारित्र और संयमचरण चारित्र-ये दो भेद किये हैं। पुनः संयमचरण चारित्र के दो भेद किये हैं-सागार और निरागार। इनमें सागार चारित्र गृहस्थ के एवं निरागार चारित्र परिग्रह रहित मुनि के होता है।' इसी क्रम में आचार्य कुन्दकुन्द ने सागार (श्रावक) की ग्यारह प्रतिमाओं और श्रावक के बारह व्रतों का मात्र नामोल्लेख किया है। आचार्य उमास्वामी ने अपने तत्त्वार्थसूत्र के सप्तम अध्याय में हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह रूप पाँच पापों से विरत होने को व्रत कहा है' तथा शल्य रहित को व्रती कहा है। तदनन्तर व्रती के दो भेद- अगारी और अनगार करके अणुव्रतों के धारक को अगारी (श्रावक) कहा है। पुनः सप्तशीलों और सल्लेखना का नामोल्लेख करके पाँच व्रतों, सप्तशीलों और सल्लेखना के पाँच-पाँच अतिचारो का उल्लेख किया