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________________ अनेकान्त-58/1-2 भोग-सामग्री भी बचने लगी। तब लोगों को सन्देह हुआ और वे पकड़े गये। बाद में राजा ने शिवमूर्ति को नमस्कार करने का आदेश दिया। स्वामी समन्तभद्र सच्चे सम्यग्दृष्टि थे। अतः उन्होंने ध्यानस्थ हो चौबीस तीर्थङ्करों की स्तुति करना प्रारम्भ की। फलस्वरूप आठवें तीर्थकर भगवान् चन्द्रप्रभ की भक्ति करते हुये भावों का ऐसा उद्रेक हुआ कि शिवमूर्ति उसे सहन नहीं कर सकी और शिवमूर्ति बीच से फट गई तथा उसमें से चन्द्रप्रभु की मूर्ति प्रकट हो गई। __ आचार्य समन्तभद्र बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। उन्होने शताब्दियों पूर्व तर्क की कसौटी पर कसकर विविध सम्प्रदायों के अनेक आचार्यो विद्वानों के समक्ष जैनधर्म की जो ध्वजा फहराई है, वह आज भी अपने अतीत के गौरव को रेखावित करती है और उत्तरवर्ती पीढ़ी को एक नवीन दिशा प्रदान करती है। परवर्ती जैनन्याय शास्त्र की प्रतिष्ठा आचार्य समन्तभद्र के द्वारा स्थापित मापदण्डों का विकसित रूप है। समन्तभद्रकृत आप्तमीमांसा पर आचार्य अकलङ्कदेव द्वारा लिखित अष्टशती टीका और उसको समाहित करते हुये उसी पर आचार्य विद्यानन्द द्वारा अष्टसहस्री टीका का लिखा जाना इस बात का सूचक है कि जैनन्याय विद्या के क्षेत्र में आचार्य समन्तभद्र ने जो मानक स्थापित किये हैं, वे आज भी मील के पत्थर के समान अडिग हैं। क्योंकि परवर्ती आचार्यों ने प्रायः उन्हीं तर्को को आधार बनाकर अपनी कृतियों का प्रणयन किया है। ऐसे महनीय व्यक्तित्व के धनी आचार्य समन्तभद्र ने 1. बृहत्स्वयम्भूस्तोत्र, 2. आप्तमीमांसा (देवागम स्तोत्र), 3. स्तुति विद्या (जिनशतक), 4. युक्त्यनुशासन और 5. रत्नकरण्डश्रावकाचार- इन पाँच ग्रन्थों की रचना की है, जो आज भी उपलब्ध हैं। इनके अतिरिक्त 1. जीवसिद्धि, 2. तत्त्वानुशासन, 3. प्रमाणपदार्थ, 4. गन्धहस्ति महाभाष्य, 5. कर्मप्राभृत टीका और 6. प्राकृत व्याकरण इन छह ग्रन्थों के रचने का उल्लेख मिलता है।' आचार्य. समन्तभद्र के उपलब्ध उपर्युक्त पाँच ग्रन्थों में प्रथम चार ग्रन्थ यद्यपि स्तुतिपरक हैं, किन्तु स्तुति के व्याज से उन्होंने जैन सिद्धान्तों का जो
SR No.538058
Book TitleAnekant 2005 Book 58 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2005
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size9 MB
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