SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 19
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ रत्नकरण्डश्रावकाचार का समीक्षात्मक अनुशीलन -डॉ. कमलेश कुमार जैन श्रीवर्द्धमानमकलङ्कमनिद्यवन्द्य पादारविन्दयुगलं प्रणिपत्य मू । भव्यैकलोकनयनं परिपालयन्तं स्याद्वादवर्त्म परिणौमि समन्तभद्रम् ।। जैन धर्म, दर्शन और न्याय के उद्भट विद्वान् आचार्य समन्तभद्र का जन्म विक्रम की दूसरी शताब्दी के अन्तिम भाग अथवा तीसरी शताब्दी के पूर्वार्द्ध' में उरगपुर में हुआ था। वे काञ्ची के सुप्रसिद्ध शासक कदम्बबंशीय ककुत्यवर्मन् के पुत्र थे। उनका गृहस्थावस्था का नाम शान्तिवर्मन् था। वही शान्तिवर्मन आचार्य कुन्दकुन्द की परम्परा में बलाकपिच्छाचार्य से दीक्षित होकर पहले मुनि समन्तभद्र और बाद में आचार्य समन्तभद्र के नाम से प्रसिद्ध हुए। ‘राजबलिकथे' के एक उल्लेखानुसार मुनि समन्तभद्र को मणुवकहल्ली नामक ग्राम में भस्मक व्याधि हो गई थी। इस व्याधि का शमन पौष्टिक और गरिष्ठ भोजन से ही सम्भव था, किन्तु मुनिचर्या का पालन करते हुये ऐसा भोजन प्रायः दुर्लभ था। अतः उन्होनें अपने गुरु से समाधिकरण की याचना की, किन्तु निमित्तज्ञानी गुरु के द्वारा यह जानकर कि इस मुनि से धर्म की अत्यधिक प्रभावना होने की संभावना है। उन्होंने व्याधि से मुक्त होने के लिये उन्हें मुनि पद से मुक्त कर दिया तथा व्याधि-शमन करने हेतु कार्यकारी उपाय करने का निर्देश दिया। फलस्वरूप वे अनेक स्थानों पर भ्रमण करते हुये काशी के राजा शिवकोटि के राजदरबार में आये और घोषणा कर दी कि वे शिवमूर्ति को सम्पूर्ण भोग-सामग्री खिला सकते हैं। राजा ने उनसे प्रभावित होकर उन्हें शिव मन्दिर में नियुक्त कर दिया। मुनि समन्तभद्र प्रच्छन्न रूप से वह भोग-सामग्री स्वयं खाने लगे। धीरे-धीरे रोग का शमन होने लगा जिससे
SR No.538058
Book TitleAnekant 2005 Book 58 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2005
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy