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अनेकान्त-58/1-2
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भ्रांतियां उत्पन्न हुई हैं। इस अर्थ से विदेह-गमन की चमत्कारिकता भी
निरस्त होती है। . 06. उक्त गाथा 43 में 'विवोहइ' शब्द भी इस धारणा को पुष्ट करता है। 07. आगम में 'सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य' का सूत्र भी इन धारणाओं का
समर्थक नहीं है। यह स्थिति छद्मस्थ की नहीं होती। 08. समयसार गाथा 14 में निश्चय-व्यवहार का स्पष्ट अभिलेख है। अन्यत्र
यह भी उल्लेख है कि अज्ञ जनों को उनकी भाषा में ही उपदेश देना · चाहिये अर्थात् हमें व्यवहारवादी भी होना चाहिये।
मुझे लगता है कि निश्चय-मानी भी कुन्दकुन्द के 'चारित्तं खलु धम्मो' एवं 'दंसण-णाण-चरित्ताणि सेविदव्वाणि' के सिद्धान्तों को स्वीकार कर अध्यात्मोन्मुखी बनने का प्रयास करते हैं। वे भी मंदिर निर्माण, वेदी व पंचकल्याणक प्रतिष्ठा, पूजन, शाकाहार आदि व्यावहारिक कार्यों में संलग्न रहते हैं। ये प्रक्रियायें निश्चयवाद की प्रेरक हैं, ऐसा मानना चाहिये। इस प्रकार, वे व्यवहार को सर्वथा अभूतार्थ नहीं कह सकते। कुन्दकुन्द के इसी समन्वित दृष्टिकोण ने उन्हें इतना प्रभावी बनाया है।
उपरोक्त बिन्दुओं में पर्याप्त बौद्धिक विश्लेषण तथा सार्थक संकेत हैं। इनके समुचित आलोडन से कुन्दकुन्द के जीवन की चमत्कारिकता तो दूर होती है, पर उनके उपदेशों की तथा उनकी गरिमा भी प्रतिष्ठित होती है। चमत्कारिकताओं के भीतर छिपे अतिरेकी रहस्य का उद्घाटन आज के युग की मांग है। मुझे विश्वास है कि विद्वत्जन इस विषय में समुचित विचार कर कुन्दकुन्द के जीवन को लौकिक रूप में ढालकर उसे और भी प्रभावशाली बनायेंगे एवं उनका ही सीमंधरत्व स्वीकार करेंगे।
सन्दर्भ 1 जिनेन्द्र वर्णी : जैनेन्द्र सिद्धात कोष-2, भारतीय ज्ञानपीठ, 1974, पेज 126-28 । 2. जैन, एन. एल : पं जगन्मोहनलाल शास्त्री, साधुवाद ग्रंथ, जैन केन्द्र, रीवा आदि, 1989, पे. 97-981
. 3. शास्त्री, पद्मचंद्र, मूल जैन-संस्कृति-अपरिग्रह, वीर सेवा मंदिर, दिल्ली, 2005, पेज 44-48 । 4. 'समयसार' और 'दर्शनसार' ।
-जैन सेन्टर, रीवा (म. प्र.)