SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 17
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 14 अनेकान्त-58/1-2 लाये? हाँ, निश्चय व्यक्ति को एक सुहावने कल्पना लोक या स्वप्न लोक में ले जाता है, संभवतः कल्पना के मूर्त रूप लेने के प्रति आशावादी भी बनाता है। यह स्थिति श्वेतकेशियों के अनुरूप अधिक है। कृष्णकेशियों का अनुभव इसके विपरीत है। पर आँख खोलते ही व्यावहारिक जगत सामने आ जाता है एवं सांबरत्व में ही 'नेति, नेति' की निश्चयी दृष्टि और दशा प्राप्ति का अनुभव करने लगते हैं। फलतः, वे स्वयं को केवली ही मान लेते हैं। शास्त्रीजी ने इस मान्यता को विसंगत एवं दिगम्बर मत के विरुद्ध बताया है क्योंकि तिल-तुष मात्र परिग्रही आत्मा को नहीं जान पाता। शुद्ध और शुभ का चक्कर भी भयंकर है जो सामान्य जन की समझ से परे लगता है। इस विषय में पं. पद्मचन्द्र शास्त्री ने कुन्दकुन्द की, कोलायडी स्थिति में, दिगम्बरत्व-प्रतिष्ठापक के रूप में प्रशस्ति करते हुए उनके सिद्धान्तों को सही रूप में लेने का संकेत किया है। महावीर के सिद्धान्तों में निश्चय और व्यवहार की सीमाओं का संधारण करने के कारण उनके लिये सीमंधर (सीमाधर) शब्द के उपयोग को सार्थक बताया है और आचार्य कुन्दकुन्द की विदेह गमन एवं सीमंधर-स्वामी के उपदेश की चमत्कारिक जन-श्रुति या किंवदन्ती को भक्ति-अतिरेक का आकर्षण माना है। उन्होंने सीमंधर शब्द के इस अर्थ को 'अभिधान राजेन्द्र कोश' से भी पुष्ट किया है। उनकी यह मान्यता गंभीर विचार चाहती है। इस विषय में उनके तर्क भी शोधपरक हैं ये निम्नलिखित हैं01. कुन्दकुन्द ने कहीं भी सीमंधर स्वामी के उपकार का स्मरण नहीं किया है। 02. कुन्दकुन्द अपने ग्रंथों में सदैव श्रुतकेवली व गमक गुरु का स्मरण करते हैं जिनका पद तीर्थकर से लघुतर है। 03. पंचमकाल में चारण ऋद्धि नहीं होती। तथापि, फडकुले जी कुंदकुंद के प्रकरण में इसे आपवादिक मानते हैं। यह विचारणीय विषय है। जिनेन्द्र वर्णी भी इसे आग्रह-हीन मानते हैं। 04. विदेह-गमन की चर्चा भी इस विषय में अनेक मुनिचर्या-विरोधी प्रसंग उपस्थित करती है। 05. देवसेन के दर्शनसार की गाथा 43 में 'सीमंधरसामि' शब्द पद्मनंदि का विशेषण है, इसे सीमंधर स्वामी तीर्थकर मान लेने के कारण अनेक
SR No.538058
Book TitleAnekant 2005 Book 58 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2005
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy