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अनेकान्त 58/3-4
संक्लेश को प्राप्त हुए हैं", ये विचार बाहुबली के केवलज्ञान में बाधक हो रहे थे। भरत के द्वारा बाहुबली की पूजा करते ही ये बाधा दूर हो गई, हृदय पवित्र हुआ और केवलज्ञान प्राप्त हो गया । भरत ने दो बार पूजा की। केवलज्ञान से पहले की पूजा अपना अपराध नष्ट करने के लिए तथा बाद की पूजा केवलज्ञान की उत्पत्ति का अनुभव करने के लिए की थी 30
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प्राकृत के कुछ ग्रन्थों में उल्लेख है कि बाहुबली ऋषभदेव के पास दीक्षा लेने नहीं गये । उसका कारण यह बताया जाता है कि उन्हें अपने अनुजों को भी विनय करना पड़ता, जो पहले ही दीक्षित हो चुके थे । " ‘पउमचरिय' व 'पद्मपुराण' में भी बाहुबली का भगवान् से दीक्षा लेने का कथन नहीं है। उन्होंने संकल्प किया था कि वे ऋषभदेव की सभा में केवलज्ञान प्राप्त करने के उपरांत ही जाएँगे। उन्होंने स्वयं ही दीक्षा ली ओर 1 वर्ष का कायोत्सर्ग धारण किया। 32 यह मान कषाय उनके केवलज्ञान की उपलब्धि में बाधक बना हुआ था । जब ब्राह्मी ने आकर बाहुबली से कहा कि “तुम कब तक मान के हाथी पर चढ़े रहोगे। तुम अपने अनुजों की नहीं, उनके गुणों की विनय कर रहे हो ।”33 अपनी गलती को मान जैसे ही बाहुबली जाने को उद्यत हुए उन्हें केवलज्ञान की प्राप्ति हो गई । 'हरिवंशपुराण' के अनुसार तो बाहुबली केवलज्ञान के बाद ही भगवान् की सभा में गए। जैन पुराणों में एक और कथा आती है कि बाहुबली के मन में शल्य था कि वे भरत की भूमि पर खड़े हैं। जैसे ही भरत ने उनसे इस शल्य को यह कह कर त्यागने की प्रार्थना की कि अनेकों चक्रवर्ती आये और गए, यह पृथ्वी किसकी हुई है, उनका शल्य दूर हो गया और उन्हें केवलज्ञान की प्राप्ति हो गई।
बाहुबली को शल्य था, ये विचार तर्क संगत प्रतीत नहीं होता । आचार्य जिनसेन के अनुसार बाहुबली को सभी प्रकार की ऋद्धियाँ प्राप्त हो गई थी और वे अत्यन्त निशल्य थे । “गौरवैस्त्रिभिरुन्मुक्तः परां निःशल्यतांगतः” ।” आचार्य उमास्वामी ने भी ' तत्वार्थ सूत्र' में कहा है कि