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अनेकान्त 58/3-4
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“निःशल्योव्रती” अर्थात् जो माया, मिथ्यात्व व निदान तीनों शल्यो से रहित है वही व्रती होता है। और यदि बाहुबली जैसे परम तपस्वी, प्रतिमा योग के धारक, सकल भोगों का त्याग करने वाले दिगम्बर महामुनि को भी शल्य मान लिया जाए तो वे महाव्रती कैसे हो सकते हैं। ‘पद्मपुराण' में भी आचार्य रविषेण ने बाहुबली के शल्य का वर्णन नहीं किया है। शल्य की कथा पुराणों में संभवतः इस विचार को प्रमुखता देने के लिए जोड़ दी गई कि किसी भी प्रकार का ‘मान कषाय' व्यक्ति की आत्मोपलब्धि में बाधक होता है चाहे वह तप के कितने ही ऊँचे शिखर पर क्यों न बैठा हो ।
बाहुबली की मूर्तियाँ क्यों? __ जैन परम्परा में केवल तीर्थकरों की मूर्तियाँ ही प्रतिष्ठापित की जाती हैं। बाहुबली स्वयं तीर्थकर नहीं थे फिर भी समस्त भारत में उनकी मूर्तियाँ स्थापित की गई। इसका मुख्य कारण यह है कि वे इस अवसर्पिणी काल के प्रथम तीर्थकर भगवान् ऋषभदेव से भी पूर्व मोक्ष जाने वाले जीव थे। उन्होंने एक वर्ष की घोर तपस्या कर कैवल्य प्राप्त किया था। उन्होंने लौकिक और पारलौकिक जीवन के लिए उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत किये थे। लौकिक स्तर पर उन्होंने सत्य, न्याय, स्वाधीनता, अहिंसा और आत्मसम्मान के लिए संघर्ष किया। युद्ध की विभिषिका को जानते हुए, नर संहार को रोकने का प्रयत्न किया। अहिंसा और प्रेम का पाठ पढ़ाया। त्याग का अनूठा आदर्श प्रस्तुत किया। विजेता होकर भी सांसारिक सुखों
को तिलाजंली दे दी और संसार की स्वार्थपरायणता, क्षणभंगुरता और निस्सारता को जानकर दुर्धर तप के रास्ते को अपनाया। कठिन तपश्चर्या में भी उन्होंने असाधारण एवं सर्वश्रेष्ठ उदाहरण प्रस्तुत किया। एक वर्ष के प्रतिमा योग में शरीर रहते हुए भी उनका शरीर के दुःख-सख से सम्बन्ध टूट गया। वे स्वतंत्रता और स्वाधीनता का पर्याय बन गये। संसार में रहते हुए स्वाधीन रहना और संसार को त्यागकर अपने पुरुषार्थ से परम स्वाधीनता (मुक्ति) प्राप्त करना ही उनका चरित्र है। इतिहास साक्षी है