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अनेकान्त 58/3-4
___बाहुबली ने अविनय के लिए भरत से क्षमायाचना की। भरत भी अपने किये अकार्य पर पश्चाताप करने लगा। दृढनिश्चयी बाहबली को भरत की अनुनय-विनय डिगा न सकी और उन्होंने राज्य त्यागकर दिगम्बर मुनि-दीक्षा ग्रहण कर ली। वाहुबली ध्यानस्थ हो गये। उन्होंने एक वर्ष तक एक ही स्थान पर प्रतिमायोग धारण किया। उनके कंधों तक केश लटकने लगे। सर्प उन पर लिपट गये और उन्होंने वामी बना ली। लतायें उनके अविचल शरीर पर चढ़ गई। ऐसी तीव्र तपस्या करने पर भी उन्हें केवलज्ञान की प्राप्ति नहीं हुई। क्योंकि उनके मन में यह विकल्प मौजूद रहा कि मैं भरत की भूमि पर खड़ा हूँ। __ बाहुबली का जैसे ही एक वर्ष का प्रतिमायोग समाप्त हुआ तो चक्रवर्ती भरत ने उनकी पूजा की। पूजा करते ही बाहुबली को अविनाशी केवलज्ञान प्राप्त हो गया। आचार्य जिनसेन ने लिखा है कि बाहुबली के मन में यह विचार विद्यमान था कि भरत को मेरे निमित्त से कष्ट पहुंचा है। इसी कारण केवलज्ञान को भरत की पूजा की अपेक्षा थी। उन्होने लिखा है
'संक्लिष्टो भरताधीशः सोऽस्मत्त इति यत्किल। हृद्यस्य हार्द तेनासीत् तत्पूजापेक्षि केवलम् ।।'
(आदिपुराण, 36/186) बाहुबली को केवलज्ञान उत्पन्न हो जाने पर भरत ने पुनः बड़ी भारी पूजा की। पहले जो पूजा की थी वह तो अपने अपराध के प्रायश्चित के लिए थी। भगवान् बाहुबली की स्तुति करते हुए आदिपुराण (36/212) में कहा गया है कि जिन बाहुबली ने अन्तरंग और बहिरंग शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर ली है, बड़े-बड़े योगिराज ही जिनकी महिमा जान सकते हैं, जो पूज्य पुरुषों के द्वारा भी पूजनीय हैं ऐसे योगिराज बाहुबली को जो अपने हृदय में धारण करता है, उसकी अन्तरात्मा शान्त हो जाती है तथा वह शीघ्र ही मोक्ष लक्ष्मी को प्राप्त कर लेता है।
भगवान् बाहुबली चरमशरीरी प्रथम कामदेव थे, जिनकी ध्यानस्थ काल