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अनेकान्त 58/3-4
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अन्य सभी भाई समस्या का हल पूछने भगवान् ऋषभदेव के पास गये। भगवान् के उपदेश से उन्होंने दिगम्बर दीक्षा धारण करली और आत्मकल्याण का मार्ग अपना लिया।
बाहबली भरत के आधीनता-विषयक सन्देश से आन्दोलित हो उठे। भरत ने बाहुबली के समीप निःसृष्टार्थ दूत भेजा, किन्तु उसके साम, दाम, दण्ड, भेद रूप सभी प्रयास असफल हो गये। बाहुबली ने भरत की आधीनता यह कहकर स्वीकार नहीं की कि भरत अपने पूज्य पिताजी द्वारा दी गई हमारी पृथिवी को छीनना चाहता है। बाहुबली विचार करने लगे
'वरं वनाधिवासोऽपि वरं प्राणविसर्जनम् । कुलाभिमानिनः पुंसो न पराज्ञाविधेयता।।'
(आदिपुराण, 35/118) परिणामस्वरूप दोनों ओर से सेनाये युद्धक्षेत्र में सन्नद्ध हो गई। दोनों पक्ष के चतुर मन्त्रियों ने विचार किया कि दोनों ही भाई चरमशरीरी हैं। अतः इनका तो कुछ बिगड़ेगा नही। व्यर्थ में दोनों ही पक्ष की सेना का घात होगा। मन्त्रियों के परामर्श से सैन्ययुद्ध का परिहार हो गया। भरत
और बाहुबली के मध्य जलयुद्ध, दृष्टियुद्ध और बाहुयुद्ध हुआ। इन तीनों युद्धों में बाहुबली विजेता रहे। भरत अत्यन्त लज्जित हुए और उन्होंने बाहुबली पर देवोपनीत चक्र चला दिया। देवोपनीत चक्र अपने कुटुम्मियों पर प्रभावी नहीं होता है। अतः चक्र ने बाहुबली की परिक्रमा की और वह निस्तेज होकर बाहुबली के समीप ही ठहर गया।
बाहुबली सोचने लगे कि साम्राज्य फल रूप में दुःखदायी ही है। मण्डलराजा एवं प्रजाजन भी भरत को धिक्कारने लगे। बाहुबली को वैराग्य उत्पन्न हो गया। वे भरत से कहने लगे
'प्रेयसीयं तवैवास्तु राज्यश्रीर्या त्वयादृता। नौचितैषा ममायुष्मन् बन्धो न हि सतां मुदे।।'
(आदिपुराण, 36/97)