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सम्पादकीय तीर्थकर ऋषभदेव इस हुण्डावसर्पिणी काल में प्रथम राजा, प्रथम केवली तथा प्रथम तीर्थकर थे। ऋषभदेव जब युवा हुए तो पिता नाभिराय ने इन्द्र की सम्मति से कच्छ एवं महाकच्छ महाराज की बहनें यशस्वती और सुनन्दा से उनका विवाह करा दिया। ऋषभदेव को रानी यशस्वती से भरत आदि निन्यानवे पुत्र एवं ब्राह्मी नामक पुत्री की प्राप्ति हुई तथा दूसरी रानी सुनन्दा से बाहुबली नामक पुत्र एवं सुन्दरी नामक पुत्री की प्राप्ति हई। राजा ऋषभदेव ने ब्राह्मी एवं सुन्दरी को क्रमशः अंकविद्या एवं लिपिविद्या का ज्ञान कराया तथा पुत्रों को सर्वविद्याओं का ज्ञान कराया। राज्य करते हुए राजा ऋषभदेव का समय सुखमय बीत रहा था कि नृत्यांगना नीलांजना की नृत्य-काल में मृत्यु तथा इन्द्र द्वारा पुनः वैसी ही नृत्यांगना उपस्थित करने के छल को उन्होंने आत्मबोध माना। उनके हृदय में यहीं से वैराग्य का अंकुरण होने लगा। उन्होंने विचार किया
'कूटनाटकमेतत्तु प्रयुक्तममरेशिना। नूनमस्मत्प्रबोधाय स्मृतिमाधाय धीमता।।।
(आदिपुराण, 17/38) राजा ऋषभदेव ने राज्यावस्था में ही अपने पुत्रों को यथायोग्य राज्य प्रदान कर दिया था। उन्होंने भरत को अयोध्या का और बाहबली को पोदनपुर (तक्षशिला) का राजा प्रदान किया था। भरत चक्रवर्ती थे और बाहुबली कामदेव । चक्रवर्ती होने से भरत ने भूमण्डल की दिग्विजय यात्रा की। दिग्विजय यात्रा के समापन पर जब चक्ररत्न अयोध्या के बाहर ही रुक गया तब विशिष्ट ज्ञानियों ने बताया कि जब तक सभी भाई आपकी आधीनता स्वीकार नहीं कर लेंगे तब तक दिग्विजय यात्रा पूरी नहीं समझी जा सकती है। इसी कारण चक्ररत्न अवरुद्ध हो गया है। भरत ने सभी भाईयों के पास अपनी आधीनता-विषयक सन्देश भेजा। बाहुबली को छोड़