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________________ अनेकान्त-58/1-2 की विशिष्ट घटना थी। आचार्य महाराज ने ना ही कहीं सीमंधर स्वामी का स्मरण कर उनके उपकार को स्वीकार किया जो कि उनका मुख्य कर्तव्य था। इसके विपरीत वे बारम्बार श्रुतकेवली का ही गुणगान करते रहे जो कि पद में तीर्थकर से लघु होते हैं। इस सबसे सिद्ध होता है कि विदेह गमन की घटना बाद में गढ़ी गई है। उनकी इस मौन भाषा को दिगम्बर ही न समझें तो इससे बड़ी बिडम्बना और क्या हो सकती है? ____ हमें अपने पूर्व विद्वानों पर भी आश्चर्य होता है कि वे किंवदन्तियों की प्राचीनता लिखते रहे जबकि उन्हें तो ऐसी किंवदन्तियों को आगम की कसौटी पर कसकर उनका विश्लेषण करना चाहिए था। कहा भी है- “पुराणमित्येव न साधु सर्व।" यदि वे ऐसा करते तो किंवदन्तियों का दुःखदाई आगम घातक प्रसंग आज उपस्थित नहीं होता जो हमारे समक्ष आ रहा है। हमारा विश्वास है कि इस संबंध की किंवदन्तियां कुन्दकुन्द के बाद दिगम्बरत्व और कुन्दकुन्दाचार्य को बदनाम करने के लिए दिग़म्बरत्व विरोधियों द्वारा प्रचार में लाई गई। विद्वेषियों द्वारा जिसका स्वरूप समझ आने लगा है। समाज आगे सचेत रहे। कहीं "विषकुम्भं पयोमुखम्" के घेरे में ना जाए। सत्य के उद्भावन (प्रकटीकरण) से समाज टूटता नहीं है, न उसका विश्वास कम होता है। इससे तो सम्यक्त्व के निःशंकित तथा अमूढदृष्टि जैसे अंगों में दृढ़ता आती है। समाज तो आपसी विद्वेष, धर्म की आढ में स्वार्थो की पूर्ति से टूटता है। -वीर सेवा मन्दिर 4674/21 दरियागंज नई दिल्ली-110002
SR No.538058
Book TitleAnekant 2005 Book 58 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2005
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size9 MB
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