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सीमन्धर कुन्दकुन्द
-डॉ. नंदलाल जैन अमृतचन्द्र और उत्तरवर्ती जयसेन के द्वारा कुन्दकुन्द के ग्रन्थों की टीकाओं के कारण कुन्दकुन्द और उनकी विचारधारा प्रकाश में आई। बीसवीं सदी तक कुन्दकुन्द की महान् प्रतिष्ठा थी। संभवतः इसका कारण इनके ग्रंथों को श्रावक-पाठ्य न मानने की धारणा और प्रचण्ड गुरुभक्ति रही होगी। इसी कारण, मंगल श्लोक में भी उनका स्मरण किया गया। इस मंगल श्लोक की परम्परा कव से चालू हुई, यह कहना कठिन है, पर यह “मंगलं स्थूलभद्राद्यो" के बाद की ही होगी क्योंकि स्थूलभद्र तो 411-312 ईसा पूर्व के आचार्य हैं और कुन्दकुन्द तो सभी विद्वानों के मत से पर्याप्त उत्तरवर्ती हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि यह मंगल श्लोक इनके ग्रंथों की टीका के समय से प्रचलित हुआ होगा क्योंकि इनके पूर्व भी आचार्य भद्रबाहु आदि अनेक प्रतिभाशाली दिगम्बरत्व प्रतिष्ठापक आचार्य हुये हैं। उनका विस्मरण कर कुन्दकुन्द को प्रतिष्ठित करना किंचित् समझ से परे तो लगता है, पर यह उनकी सैद्धांतिक एवं संघाचार्य की निपुणता को व्यक्त करता है। फिर भी, उनके इतनी सदियों तक विस्मृत रहने में संभवतः उनकी अप्रवाह्यमान विचारधारा ही कारण रही होगी।
तथापि जिनभक्ति के प्रभाव में कुन्दकुन्द ने किसी भी ग्रन्थ में अपना जीवन-वृत्त नहीं दिया। उनके ग्रन्थ 'श्रुतकेवली भणित' के प्रतिपादक हैं और वे भद्रबाहु को अपना गमक (परम्परया) गुरु मानते हैं। इस इतिहास-निरपेक्षता के कारण जबसे वे विद्वत् जगत के अध्ययन के विषय बने, तभी से श्री मुख्तार, उपाध्ये, के. वी. पाठक, प्रेमी, ढाकी व अनेक विदेशी विद्वानों ने उनके जीवन के सभी पक्षों-जन्म स्थान (लगभग निश्चित), माता-पिता (वैश्य वंशज), शिक्षा-दीक्षा (दो गुरु), साधुत्व एवं आचार्यत्व (लगभग 44 वर्ष) आदि पर विभिन्न मत प्रस्तुत किये हैं। तीर्थकरों के जीवन की देवकृत चमत्कारिकता