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अनेकान्त-58/1-2
शासन रहा। सम्राट सम्प्रति के अन्तिम दिनों में वहाँ चेदिवंश की पुनः स्थापना हुई। इस वंश को प्रसिद्ध सम्राट महामेघवाहन खारवेल था। समस्त भारत को इसने अपने आधीन कर लिया। मगध को भी विजय किया, पुष्यमित्र शुङ्ग, उसके सामने नतमस्तक हुआ युनानी दमित्र को उसने देश से बाहिर खेदड़ भगाया, सातकर्णी आन्ध्र, भोजक, राष्ट्रिक आदि सर्व राजे उसके आधीन थे। खारवेल जैनधर्म का दृढ़ अनुयायी था। इस धर्म के प्रचार प्रभावना के लिये उसने सतत प्रयत्न किये। जैन मगध-साम्राज्य के उपरान्त जैन, कलिङ्गसाम्राज्य हुआ। इस प्रकार उत्तरीभारत में सन् ई. पूर्व की 2री शताब्दी के मध्य तक जैनधर्म की ही प्रधानता रही।
मालव अथवा अवन्ति में महावीर काल में प्रद्योतवंश का राज्य था। वहां का प्रसिद्ध राजा चंडप्रद्योत तथा उसका पुत्र पालक जैनधर्मानुयायी थे। नन्दिवर्धन ने अवन्ति को विजय कर अपने राज्य का सूबा बनाया, इसका उत्कर्ष मगधसाम्राज्य के अस्त होने के पश्चात् वरन् खारबेल की मृत्यु के उपरान्त प्रारंभ हुआ। खारवेल के पश्चात् उसके ही एक वंशज ने अवन्ति में जो खारवेल के राज्य का एक सूबा थी, स्वतन्त्र राज्य स्थापन कर लिया। अब उत्तर भारत की केन्द्रीय शक्ति मगध न रह गया था वरन् अवन्ति हो गई थी। अस्तु; तत्कालीन महाराष्ट्र के आन्ध्र, पद्मावती भोगवती के नाग, गुजरात के शक छत्रप सर्व ही अवन्ति पर दाँत लगाये रहते थे। तथापि लगभग डेढ़ सौ वर्ष तक वहां जैन गर्दभिल्ल वंश का ही राज्य रहा। प्रसिद्ध सम्राट् प्रथमविक्रमादित्य, इसी गर्दभिल्ल वंश के थे। उनके पिता के अनाचारों के कारण उनके जन्म से पूर्व ही नवागत शकों का अवन्ति पर अधिकार हो गया था, किन्तु होश संभालने पर उन्होंने शको को देश से निकाल बाहर किया। उनका शासन सर्व प्रकार से कल्याणप्रद तथा आदर्श रहा। जैनाचार्य कालक सूरि के प्रभाव से वह दृढ़ जैनधर्म भक्त हो गये थे। उन्हीं की स्मृति में प्रचलित विक्रम संवत् चला। इस संवत् के सबसे प्राचीन और सबसे अधिक उपयोग जैन साहित्य एवं पुरातत्व में ही मिलते हैं।
सम्राट विक्रम के पश्चात् कुछ समय तक गुजरात के शकों का अवन्ति पर