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________________ अनेकान्त-58/1-2 109 निर्णय नहीं हो पाया। सामान्य धारणा उसके बौद्ध होने की है किन्तु डा. टामस 12 आदि अनेक इतिहासज्ञ विद्वानों का मत है कि वह जैन ही था और यदि उसने बौद्धधर्म अङ्गीकार भी किया तो अपनी अन्तिम अवस्था में। वास्तव में स्वयं बौद्ध अनुश्रुति के अनुसार अशोक ने अपने शासनकाल में बौद्धों पर बड़े अत्याचार किये थे। उस धर्म के प्रति अशोक की उपेक्षा का ही यह परिणाम हुआ कि तत्कालीन बौद्धधर्माध्यक्षो ने बौद्धों को भारतेतर प्रदेशों में प्रयाण कर जाने का आदेश दिया। अशोक का उत्तराधिकारी सम्प्रति तो निश्चय कट्टर जैन धर्मानुयायी था और जैनधर्म के प्रचार और प्रसार में उसने वह सब प्रयत्न किये जिनका श्रेय भ्रम से बौद्धधर्म के लिये सम्राट अशोक को दिया जाता है। सम्प्रति के वंशज मगध के शालिशुक, देवधर्म आदि, अवन्तिका वृहद्रथ, गांधार के वीरसेन, सुभगसेन, काश्मीर के जालक-सर्व जैन थे। ई. पूर्व की 3री शताब्दी के अन्त में मगध में क्रान्ति हुई। मौर्य वंश का उच्छेद कर ब्राह्मण शुगवंश का और तत्पश्चात् कन्व वंश का राज्य कोई सौ सवासौ वर्ष रहा। यह दोनों वंश ब्राह्मण धर्मानुयायी थे। किन्तु कन्व वंश के पश्चात् फिर मगध वैशाली के जैन लिच्छवियों के अधिकार में आ गया। ई. सन् की 4थीं शताब्दी तक उन्हीं के अधिकार में रहा और अन्त में एक वैवाहिक संबंध के कारण लिच्छवियों की ही सहायता से गुप्तवंशी सम्राट हिन्दु-पुनरुद्धार के प्रवर्तक थे। मलय अथवा चेदिका विस्तार मध्यभारत से लगा कर कलिङ्ग तक था। चेदिवंश की एक शाखा वर्तमान बुन्देलखंड आदि प्रान्तों में, जिसे मध्यकलिङ्ग भी कहा जाता था, राज्य करती थी। दूसरी शाखा कलिङ्ग (उड़ीसा) में। कलिङ्ग में बहुत प्राचीनकाल से जैनधर्म की प्रवृत्ति थी। वीर-निर्वाण संवत् 103 में (ई. पूर्व 424) मगधसम्राट नन्दिवर्धन कलिङ्ग कों विजयकर वहाँ से प्रथम जिन की मूर्ति मगध में ले आया था। किन्तु उत्तर नन्दों के समय कलिङ्ग फिर स्वतन्त्र हो गया था। बिन्दुसार के शासनकाल में कलिङ्ग में फिर एक क्रान्ति हुई प्रतीत होती है। प्राचीन चेदिवंश के स्थान में किसी आततायी और उसके वंशजों का
SR No.538058
Book TitleAnekant 2005 Book 58 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2005
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size9 MB
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