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अनेकान्त-58/1-2
नागराजों ने अवसर पाकर वैदिक आर्यो के केन्द्र तथा शिरमौर कुरु-पाञ्चाल देशों पर प्रबल आक्रमण करने प्रारंभ कर दिये। युधिष्ठिर के उत्तराधिकारी राजा परीक्षित को नागों के हाथ अपने प्राण खोने पड़े, परीक्षित पुत्र जन्मेजय का सारा जीवन नागों के साथ लड़ते बीता और अन्त में उनके वंशज निचक्षु को तथा अन्य कुरु-पाञ्चाल-देशों के नागराजों को स्वदेश छोड़कर पूर्वस्थ कौशाम्बी आदि में शरण लेनी पड़ी । परिणामस्वरूप हस्तिनागपुर, अहिच्छेत्र, मथुरा, पद्मावती, भोगवती, नागपुर आदि में नागराज्य स्थापित हो गये। सिंध में पातालपुरी (पाटल) के नग तथा दक्षिणी पंजाब में सम्भुत्तर महाजनपद के साम्भवव्रात्त्य प्रबल हो उठे। पूर्वस्थ अंग, बंग, विदेह, कलिंग, काशी आदि देशों में भी नाग, नागवंशज (शिशुनाग), तथा लिच्छवि, वज्जी, भल्ल, मल्ल, मोरिय नात आदि व्रात्य-सत्ताएँ प्रबल हो उठीं।
व्रात्य श्रमणों के संसर्ग और प्रभावंश के शल, वत्स, विदेह आदि देशों के वैदिक आर्य भी याज्ञिक हिंसा एवं वेदों के लौकिकवाद (Matterialism) को छोड़ अध्यात्म के रंग में रंग गये। आत्मा में लीन, संसार-देह-भोगों से विरक्त विदेह व्रात्यों के सम्पर्क में ब्रह्मवादी, यज्ञविरोधी, अहिंसाप्रेमी जनक लोग भी विदेह कहलाने लगे। इस धार्मिक सामञ्जस्य एवं उदारता के कारण कुछ काल तक विदेह के जनक राजे, तत्कालीन राजनैतिक क्षेत्र में प्रमुख रहे, किन्तु पश्चिम के वैदिक आर्य उनसे भी व्रात्यों की भांति घृणा करने लगे, उन्हें भी अपने से वैसा ही हीन समझने लगे। उधर व्रत्य क्षत्रियों के प्रबल गणतन्त्र तथा नागों के कितने ही राज्यतन्त्र स्थान स्थान में स्थापित हो रहे थे। काशी में उरगवंश की स्थापना हुई। काशी के उरगवंशी जैन चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त ने समस्त तत्कालीन राज्यों से अपना आधिपत्य स्वीकार कराया। उनके वंशज काशीनरेश अश्वसेन की पट्टरानी वामा देवी ने सन ई. पूर्व 877 में 23वें जैन तीर्थङ्गर भगवान पार्श्वनाथ को जन्म दिया। भगवान पार्श्व की ऐतिहासिकता आज निर्विवाद रूप से सिद्ध हो चुकी है । वह युग नागयुग था। भगवान पार्श्व नागवंश (उरगवंश) में ही हुआ था। उनके अनुयायी तथा भक्तों में भी नागजाति का ही विशेष स्थान था। उनका लाँछन (चिन्ह विशेष) भी नाग ही था। उन में प्राचीन से प्राचीन प्रतिमाएँ नागछत्रयुक्त ही मिलती हैं। जोदड़ों