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________________ अनेकान्त-57/1-2 स्वागत की तैयारी मात्र है। समाधिमरण में चिदानन्द को प्राप्त करने के लिए शरीर के मोह को छोड़ना होता है। किन्तु शरीर का मोह त्याग और आत्मघात दोनों एक बात नहीं है। पहले में संसार की वास्तविकता को समझकर शरीर से ममत्व हटाने की बात है और दूसरे में संसार से घबड़ाकर शरीर को समाप्त करने का प्रयास है। पहले में सात्विकता है, तो दूसरे में तामसिकता एक में ज्ञान का प्रकाश है तो दूसरे में अज्ञान का अन्धकार । मोह-त्याग संयम है तो आत्मघात में असंयम। समाधिमरण का उद्देश्य मोह त्याग भी नहीं अपितु आत्मानन्द प्राप्त करना है। आत्म स्वरूप पर मन को केन्द्रित करते ही मोह तो स्वयं ही दूर हो जाता है।' उसे नष्ट करने का प्रयास नहीं करना पड़ता। परमसमाधि में तो सभी इच्छाएं विलीन हो जाती है यहां तक कि आत्मा के साक्षात्कार की अभिलाषा भी नही रहती। इसके अतिरिक्त जैनागमों में आयुकर्म को बहुत प्रबल माना गया है। चार घातिया कर्मो को जीतने वाले अर्हन्त को भी आयु-कर्म के बिलकुल क्षीण होने तक इस संसार में रुकना पड़ता है। सल्लेखना की समय-सीमा :- आचार्य नेमीचंद सिद्धान्त चक्रवर्ती ने लिखा है कि भक्त-प्रत्याख्यान अर्थात् भोजनत्याग (अन्न, खाद्य, लेस्य पदार्थो के त्याग) की प्रतिज्ञा करके जो संन्यास मरण होता है, उसका जघन्य काल प्रमाण अन्तर्मुहूर्त मात्र है एवं उत्कृष्टतम कालप्रमाण बारहवर्ष है तथा अन्तर्मुहूर्त से लेकर बारह वर्ष पर्यन्त जितने भी समय भेद है वे सब सल्लेखना के मध्यमकाल के भेद हैं।" सल्लेखना विधि :- सल्लेखना की विधि में कषायों को कश करने का उपाय बताते हुए आचार्य लिखते हैं कि साधक को सर्वप्रथम अपने कुटुम्बियों, परिजनों एवं मित्रों से मोह, अपने शत्रुओं से बैर तथा सब प्रकार के बाह्य पदार्थों से ममत्व का शुद्धमन से त्यागकर मिष्ट वचनों के साथ अपने स्वजनों और परिजनों से क्षमा याचना करनी चाहिए तथा अपनी ओर से भी उन्हें क्षमा कर देना चाहिए। उसके बाद किसी योग्य गुरु के पास जाकर कृत, कारित, अनुमोदन से किये गये सब प्रकार के पापों की छल रहित आलोचना कर
SR No.538057
Book TitleAnekant 2004 Book 57 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2004
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size9 MB
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