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________________ अनेकान्त-57/1-2 भेद हैं- पहला भक्त-प्रत्याख्यान कहलाता है। भक्त नाम भोजन का है, उसे शनैः शनैः छोड़कर जो शरीर का त्याग किया जाता है, उसे भक्त-प्रत्याख्यान मरण कहते हैं। भक्तप्रत्याख्यान करने वाला साधु अपने शरीर की सेवा अपने हाथ से भी करता है, और यदि दूसरा करे तो उसे भी स्वीकार कर लेता है। दूसरा इंगिनीमरण है, जिसमें और तो सब भक्त-प्रत्याख्यान के समान ही होता है किन्तु दूसरे के द्वारा वैय्यावृत्ति स्वीकार नहीं की जाती है। तीसरा प्रायोपगमन मरण है। इसे धारण करने वाले के लिए किसी भी प्रकार की वैय्यावृत्ति का प्रश्न नहीं उठता। इसमें तो मरण-पर्यन्त प्रतिमा के समान किसी शिलापर तदवस्थ रहना होता है। समाधिमरण आत्मघात नहीं है :- कुछ मनीषियों ने जैन मुनि के समाधिमरण को आत्मघात माना है। आत्मघात का शाब्दिक अर्थ है-आत्मा का घात। किन्तु जैन दर्शन ने आत्मा को शाश्वत सिद्ध किया है आत्मा एक रूप से त्रिकाल में रह सकने वाला नित्य पदार्थ है। जिस पदार्थ की उत्पत्ति किसी भी संयोग से न हो सकती हो वह पदार्थ नित्य होता है। आत्मा किसी भी संयोग से उत्पन्न हो सकती है, क्योंकि जड़ के चाहे कितने भी संयोग क्यों न करे, तो भी उसमें चेतन की उत्पत्ति नहीं हो सकती है। भावलिंगी मुनि सदैव विचार करता है कि "मेरी आत्मा एक है, शाश्वत है और ज्ञान-दर्शन ही उसका लक्षण है। अन्य समस्त भाव बाह्य हैं।' इस भांति नित्य आत्मा का घात किसी भी दशा में सम्भव नहीं है। आचार्य पूज्यपाद स्वामी ने राग-द्वेष या मोह के कारण, विष शस्त्र या अन्य किसी उपाय से अपने इस जीवन को समाप्त करने को आत्मघात बताया है। किन्तु जैन मुनि की समाधि न तो राग-द्वेष का परिणाम है और न मोह का भावावेश। जैनाचार्यों ने समाधिमरण धारण करने वाले से स्पष्ट कहा है कि यदि रोगादि कष्टों से घबड़ाकर शीघ्र ही समाप्त होने की इच्छा करोगे अथवा समाधि के द्वारा इन्द्रादिपदों की अभिवाञ्छा करोगे तो तुम्हारी समाधि विकृत है। इससे लक्ष्य तक न पहुँच सकोगे। मृत्यु के समय समाधिमरण करने वाले जीव का भाव अपने को समाप्त करना नहीं, अपितु शुद्ध आत्म चैतन्य को उपलब्ध करना होता है। वह मृत्यु को बुलाने का प्रयास नहीं करता, अपितु वह स्वयं आती है। उसका समाधिमरण आने वाले के
SR No.538057
Book TitleAnekant 2004 Book 57 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2004
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size9 MB
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