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________________ अनेकान्त-57/1-2 मरणपर्यन्त के लिए महाव्रतों को धारण करना चाहिए। उसके साथ ही उसे सब प्रकार के शोक, भय, सन्ताप, खेद, विषाद, कालुष्य, अरति आदि अशुभ भावों को त्यागकर अपने बल, वीर्य, साहस और उत्साह को बढ़ाते हुए गुरुओं के द्वारा सुनाई जाने वाली अमृतवाणी से अपने मन को प्रसन्न रखना चाहिए। इस प्रकार ज्ञानपूर्वक कषायों को कृश करने के साथ अपनी काया को कृश करने के लिए सर्वप्रथम स्थूल आहार का त्याग करना चाहिए तथा दुग्ध छाछ आदि पेय पदार्थों पर निर्भर रहने का अभ्यास बढ़ाना चाहिए। धीरे-धीरे जब दूध छाछ आदि पर रहने का अभ्यास हो जाए तब उनका भी त्यागकर मात्र गर्म जल ग्रहण करना चाहिए। इस प्रकार चित्त की स्थिरतापूर्वक अपने उक्त अभ्यास और शक्ति को बढ़ाकर धीरजपूर्वक अन्त में जल का भी त्याग कर देना चाहिए और अपने व्रतों का निरतिचार पालन करते हुए पंच नमस्कार मंत्र के स्मरण के साथ ही शांतिपूर्वक देह का त्याग करना चाहिए। सल्लेखना के लिए स्थान :- अरिहन्त एवं सिद्धों का मंदिर, जहां पर अरिहन्त सिद्ध आदि की प्रतिमायें हैं- ऐसे पर्वत आदि स्थान, कमल युक्त तालाब, समुद्र तट का प्रदेश, दूध वाले वृक्षों से युक्त स्थान, फूल-फलों से लदे हुए वृक्षों से सुशोभित जगह, उद्यान, तोरण द्वारों से सज्जित घर, नागों के घर के समीप एवं यक्षादि का स्थान सल्लेखना लेने वाले व्यक्ति के लिए पवित्र स्थल है।" सल्लेखना के लिए पूर्व, उत्तर दिशा को ही श्रेष्ठ दिशा मानकर उसी दिशा में भूमि पर, शिलातल पर अथवा साफ रेत पर सल्लेखना ग्रहण करनी चाहिए। सल्लेखना धारण करने की आवश्यकता :- काय और कषायों को अच्छी तरह कृश् करने की विधि को सल्लेखना कहा गया है। सल्लेखना के समय काय और कषाय को कृश् करके संन्यास धारण करना यही जीवन भर के तप का फल है। जीवन भर साधना करते रहने के बाद यदि सल्लेखना पूर्वक मरण नहीं हो पाता तो साधना का वास्तविक फल नहीं मिल पाता है। इसलिए प्रत्येक साधक को सल्लेखना अवश्य करनी चाहिए। सल्लेखना के अतिचार :- जैनाचार्यों ने जीविताशंसा, मरणाशंसा, भय,
SR No.538057
Book TitleAnekant 2004 Book 57 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2004
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size9 MB
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