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________________ सल्लेखना : एक विश्लेषण -डॉ. बसन्तलाल जैन भारतीय मनीषियों ने मानव जीवन को सफलतापूर्वक निर्वाह करने को जीवन जीने का कला बताया है, लेकिन मृत्यु के समय मरण का कैसे स्वागत किया जाए या मृत्यु को महोत्सव रूप में कैसे सम्पन्न करें, इसके सम्बन्ध में कोई विचार प्रस्तुत नहीं किया है। मात्र जैनदर्शन ही मृत्यु-महोत्सव विधान प्रस्तुत करता है। जैन-दर्शन का मानना है कि मृत्यु शाश्वत सुख को उत्पन्न करने वाली है, इसलिए इसका मांगलिक महोत्सव मनाया जाता है, जो प्रशंसा के योग्य है। ___ जब समतापूर्वक जीवन यापन करते समय मरण अवश्यंभावी हो, तब बिना किसी खेद-खिन्नता के स्वयं अपने शरीर से ममत्व रहित होकर क्रमशः चार प्रकार का आहार-त्याग करते हुए धर्म-ध्यान में मन को एकाग्र करने की विधि को जैन दर्शन में 'सल्लेखना' नाम दिया गया है। __ भगवती आराधना के टीकाकार लिखते हैं कि “प्राणधारण करने को जीवन कहते हैं, वह आयु के अधीन है, मेरी इच्छा के अधीन नहीं है। मेरी इच्छा होने पर भी प्राण नहीं ठहरते है। सम्पूर्ण जगत् चाहता है कि उसके प्राण बने रहें, किन्तु वे नहीं रहते हैं।' अतः आगामी पर्याय अच्छी हो, इसलिए विधि-पूर्वक शरीर-त्याग में प्रसन्नता होनी चाहिए। सल्लेखना की व्याख्या – सल्लेखना पद 'सत्' और 'लेखना' शब्दों से बना है। सत् का अर्थ है-सम्यक, और लेखना का अर्थ है-कुश करना, अर्थात् सम्यक् प्रकार से कृश करना। दूसरो शब्दों में काया और कषाय को अच्छी प्रकार से कृश करना सल्लेखना है। आचार्य पूज्यपाद स्वामी ने 'सम्यक्काय-कषाय-लेखना' को और आचार्य श्रुतसागर ने “सत् सम्यक् लेखनाकायस्य कषायाणां च कृशीकरणं तनूकरणं" को सल्लेखना कहा है।
SR No.538057
Book TitleAnekant 2004 Book 57 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2004
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size9 MB
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