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अनेकान्त-57/1-2
सर्वाधिक प्राचीन टीका है, अतः इसका और भी महत्त्व बढ़ जाता है। इसी कारण उनके इस वैयाकरण रूप को रेखाङ्कित करने वाले कतिपय उदाहरण ही यहाँ प्रस्तुत किये गये हैं। विस्तार के लिये सुधीजनों को मूल ग्रन्थ का अवलोकन करना चाहिये। तभी इसके सम्पूर्ण रहस्यों को जाना जा सकता है।
ग्रन्थ-सन्दर्भ
। यो देवनन्दि प्रथमाभिधानो, बुद्ध्या महत्या स जिनेन्द्रबुद्धिः ।
श्रीपूज्यपादोऽजनि देवताभि, र्यत्पूजितं पादयुगं यदीयम्।। -जैन शिलालेख सग्रह, भाग 1, पृष्ठ 25 2. तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा, भाग 2, पृ. 219-220 3. वही, पृष्ठ 200 4. सारसग्रहेऽप्युक्तं पूज्यपादै – अनन्तपर्यायात्मकस्य वस्तुनोऽन्यतमपर्यायाधिगमे कर्तव्ये
जात्यहेत्वपेक्षो निरवद्यप्रयोगो नय इति। - षट्खण्डागम, धवलाटीका, पुस्तक 9, पृष्ठ 160 5. कवीना तीर्थकृदेवः कितरा तच्च वर्ण्यते। विदुषा वाड्मलध्वसि तीर्थ यस्य वचोमयम् ।।
-- महापुराण, पर्व 1, पद्य 52 6. अचिन्त्यमहिमा देवः सोऽभिबन्धो हितैषिणा।
शब्दाश्च येन सिद्धयन्ति साधुत्व प्रतिलम्भिताः ।। - पार्श्वनाथचरितम् 1/18 7. पूज्यपादः सदापूज्यपाद. पूज्य. पुनातु माम्। व्याकरणार्णवो येन तीर्णो विस्तीर्णसद्गुण ।।
- पाण्डवपुराण 1/16 8. अपाकुर्वन्ति यद्वाच कायवाक् चित्तसम्भवम् । कलङ्कभङ्गिमा सोऽयं देवनन्दी नमस्यते।।
-ज्ञानार्णव 1/15 9. जैनेन्द्र व्याकरण 1/1/1 10. 'सस्कृत-प्राकृत जैन व्याकरण और कोश की परम्परा' के अन्तर्गत संस्कृत के जैन वैयाकरण एक मूल्याङ्कन
___ -डॉ गोकुलचन्द्र जैन पृष्ठ 42 11. तत्त्वार्थसूत्रम् 1/1, 12 सर्वार्थसिद्धि 1/1 की टीका, 13. सर्वार्थसिद्धि 1/1 की टीका, 14. तत्त्वार्थसूत्रम् 4/19, 15. सर्वार्थसिद्धि 4/19 की टीका, 16. तत्त्वार्थसूत्रम् 4/32, 17. सर्वार्थसिद्धि 4/32 की टीका, 18. तत्त्वार्थसूत्रम् 4/22, 19, सर्वार्थसिद्धि 4/22 की टीका, 20 सर्वार्थसिद्धि 4/22 की टीका, 21. तत्त्वार्थसूत्रम् 2/1, 22. सर्वार्थसिद्धि 2/1 की टीका, 23. सर्वार्थसिद्धि 2/1 की टीका, 24. सर्वार्थसिद्धि 2/1 की टीका, 25. सर्वार्थसिद्धि 2/1 की टीका, 26. तत्त्वार्थसूत्रम् 4/31, 27. सर्वार्थसिद्धि 4/31 की टीका
- रीडर एवं अध्यक्ष, जैन-बौद्धदर्शन विभाग,
संस्कृतविद्या धर्मविज्ञान सङ्काय काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी