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________________ अनेकान्त-57/1-2 मरणकाल के उपस्थित होने पर ही सल्लेखना धारण की जाती है। आचार्य उमास्वामी ने तत्त्वार्थसूत्र में लिखा है कि- 'मारणान्तिकी सल्लेखनां जोषिता।" अर्थात् मरण काल आने पर गृहस्थ को प्रीति पूर्वक विधिपूर्वक सल्लेखना धारण करनी चाहिए। आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने रत्नकरण्डक श्रावकाचार में लिखा है कि "उपसर्गे दुर्भिक्षे जरसि रुजायां च निः प्रतीकारे। धर्माय तनुविमोचनमाहुः सल्लेखनामार्याः ।।" अर्थात् प्रतिकार रहित असाध्य दशा को प्राप्त हुए दुर्भिक्ष जरा तथा रोग की दशा में और ऐसे दूसरे किसी कारण के उपस्थित होने पर जो धर्मार्थ देह का संत्याग है, उसे सल्लेखना कहते हैं। मानव शरीर धर्म करने का साधन है इसलिए यदि वह धर्म-साधन में सहायक होता है तो उसे त्यागना नहीं चाहिए और जब वह शरीर धर्म में बाधक बन जाय तो शरीर के ममत्व को छोड़कर धर्म की ही रक्षा करनी चाहिए। शरीर के ममत्व को त्यागकर समतापूर्वक देहत्याग करना ही समाधिमरण या सल्लेखना है। ____ काय और कषाय को क्षीण करने के कारण सल्लेखना दो प्रकार मानी जाती है- 1. काय सल्लेखना-जिसे बाह्य सल्लेखना भी कहते हैं और 2. कषाय सल्लेखना-जिसे आभ्यन्तर सल्लेखना कहते हैं। इन दोनों भेदों का निरूपण करते हुए आचार्य पूज्यपाद स्वामी लिखते हैं कि “कायस्य बाह्यस्याभ्यन्तराणां च कषायाणां तत्कारणहापनक्रमेण-सम्यग्लेखना सल्लेखना" अर्थात् बाहरी शरीर और भीतरी कषायों के पुष्ट करने वाले कारणों को शनैः-शनैः घटाते हुए उनको भली प्रकार कृश करना सल्लेखना है। आचार्य श्रुतसागर जी ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि-'कायस्य लेखना वाह्य सल्लेखना। कषायाणां सल्लेखना अभ्यन्तरा सल्लेखना।।" 5 अर्थात् काय की सल्लेखना बाह्य सल्लेखना और कषायों की सल्लेखना आभ्यन्तर सल्लेखना कही जाती है। काय बाह्य सल्लेखना और कषाय आन्तरिक सल्लेखना है। समाधिमरण और सल्लेखना में एकरूपता :- जैन शास्त्रों में सल्लेखना और समाधिमरण पर्यायवाची शब्द माने गये हैं। दोनों की क्रिया-प्रक्रिया और
SR No.538057
Book TitleAnekant 2004 Book 57 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2004
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size9 MB
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