SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 76
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनेकान्त-57/1-2 73 उसका स्पष्टीकरण करते हुये आचार्य पूज्यपाद ने लिखा है कि“मार्गः इति चैकवचननिर्देशः समस्तस्य मार्गभावज्ञापनार्थः " अर्थात् सूत्र में जो 'मार्ग' पद में एकवचन का निर्देश किया है वह सम्यग्दर्शनादि सभी मिलकर मार्ग हैं ऐसा ज्ञान कराने के लिये किया है । सूत्रगत शब्दों के क्रम निर्धारण में भी आचार्य पूज्यपाद ने तर्क और आगम का सहारा लेकर सूत्रकार के क्रम को उचित ठहराया है। 'सम्यग्दर्शनज्ञान - चारित्राणि मोक्षमार्गः' नामक इसी सूत्र में सूत्रकार ने पहले दर्शन और तदनन्तर ज्ञान शब्द रखा है । यहाँ शङ्ककार का कहना है कि ज्ञान पूर्वक दर्शन होने से तथा अल्पाक्षर होने से दर्शन से पूर्व ज्ञान पद देना उचित है। इस पर आचार्य पूज्यपाद कहते हैं कि - नैतद्युक्तं युगपदुत्पत्तेः । यदास्य दर्शनमोहस्योपशमात् क्षयात् क्षयोपशमाद्वा आत्मा सम्यग्दर्शन-पर्यायेणाविर्भवति तदैव तस्य मत्यज्ञानश्रुताज्ञान- निवृत्तिपूर्वकं मतिज्ञानं श्रुतज्ञानं चाविर्भवति घनपटलविगमे सवितुः प्रतापप्रकाशाभिव्यक्तिवत् । अल्पाच्तरादभ्यर्हितं पूर्वं निपतति । " अर्थात् यह कहना युक्त नहीं है कि दर्शन ज्ञानपूर्वक होता है इसलिये सूत्र में ज्ञान को पहले ग्रहण करना चाहिये। क्योंकि दर्शन और ज्ञान एक साथ उत्पन्न होते हैं । जैसे मेघपटल के दूर हो जाने पर सूर्य के प्रताप और प्रकाश एक साथ व्यक्त होते हैं, उसी प्रकार जिस समय दर्शनमोहनीय का उपशम, क्षय या क्षयोपशम होने से आत्मा सम्यग्दर्शन पर्याय से आविर्भूत होता है उसी समय उसके मत्यज्ञान और श्रुताज्ञान का निराकरण होकर मतिज्ञान और श्रुतज्ञान प्रकट होते हैं। दूसरी बात यह हैं कि ऐसा नियम है कि सूत्र में अल्प अक्षर वाले शब्द से पूज्य शब्द पहले रखा जाता है, अतः पहले ज्ञान शब्द को न रखकर दर्शन शब्द को रखा है । - 14 इसी प्रकार कल्पवासी देवों के विमानों का विधान करने वाले - 'सौधर्मेशान - सानत्कुमार...' " इत्यादि सूत्र के अन्तर्गत 'नवसु ग्रैवेयकेषु' में तत्त्वार्थसूत्रकार ने असमासान्त पृथक् 'नव' शब्द का प्रयोग किया है, जिसका आगमिक परम्परा से सामञ्जस्य स्थापित करते हुये वैयाकरण आचार्य पूज्यपाद ने स्पष्ट किया है कि अनुदिश नाम के अन्य नौ विमान और भी हैं और उन्हीं
SR No.538057
Book TitleAnekant 2004 Book 57 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2004
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy