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अनेकान्त-57/1-2
वैयाकरण होने के प्रमाण हैं। साथ ही उनके द्वारा लिखा गया जैनेन्द्र व्याकरण भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण एवं उल्लेखनीय है। इसमें उन्होंने सर्वप्रथम 'सिद्धिरनेकान्तात्' नामक सूत्र देकर यह सिद्ध किया है कि शब्दों की सिद्धि अनेकान्त के द्वारा होती है। इससे उन्होंने जैनदर्शन के प्रमुख सिद्धान्त अनेकान्तवाद का भी समर्थन किया है। मुग्धबोध के कर्ता पं. बोपदेव ने जिन आठ महान् व्याकरण-शास्त्रों का उल्लेख किया है, उनमें जैनेन्द्र व्याकरण की भी गणना की गई है। वे लिखते हैं
इन्द्रश्चन्द्रः काशकृत्स्नापिशली शाकटायनः।
पाणिन्यमरजैनेन्द्रा जयत्पष्टौ च शाब्दिकाः।। 10 अर्थात् इन्द्र, चन्द्र, काशकृत्स्न, आपिशली, शाकटायन, पाणिनि, अमर और जैनेन्द्र-इन आठ व्याकरणों के रचयिता जयवन्त हों। ___ इन उल्लेखों से इतना तो स्पष्ट है कि आचार्य पूज्यपाद की व्याकरणशास्त्र में गहरी पैठ थी। अतः उनके द्वारा चाहे स्वतन्त्र साहित्य-सृजन का कार्य हो अथवा किसी पूर्वाचार्य की कृति पर टीका-लेखन का कार्य हो-सभी में उनकी अप्रतिहत गति थी। और यही कारण है कि जब उन्होंने अध्यात्मशास्त्र विषयक कृतियों की रचना की तो वे अध्यात्म के क्षेत्र में पर्याप्त प्रभावशाली रहीं तथा जब उन्होंने आचार्य उमास्वामिकृत तत्त्वार्थसूत्र पर टीका लिखी तो उन्होंने तत्त्वार्थसूत्र के प्रत्येक सूत्र पर बड़ी गहराई एवं सूक्ष्मदृष्टि से चिन्तन किया और सिद्धान्त रूपी सागर में गोता लगाकर जो रत्न प्राप्त किये उससे जहाँ जिज्ञासुओं को एक नवीन प्रकाश मिला, वहीं उन्होंने आचार्य उमास्वामी के कद को भी निस्संदेह ऊँचा किया है। ___ आचार्य पूज्यपाद ने तत्त्वार्थसूत्र की टीका लिखते समय सर्वप्रथम स्वयं को एक लघु संस्कृतज्ञ के रूप में रखकर जन साधारण की ओर से उमास्वामिकृत सूत्रों पर होने वाली शङ्काओं को उपस्थित किया है। तदनन्तर उन्होंने आगम-परम्परा को सुरक्षित रखते हुये सूत्रगत शङ्काओं का निवारण किया है। उन शकाओं के निवारण हेतु आचार्य पूज्यपाद का वैयाकरण रूप उभरकर सामने आया है। ग्रन्थ के प्रारम्भ में ही 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणिमोक्षमार्गः। इस सूत्र में सूत्रकार ने ‘मार्गः' इस पद में एक वचन का प्रयोग किया है, अतः