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अनेकान्त-57/1-2
आचार्य कुन्दकुन्द के अध्यात्म का प्रभाव स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। समाधितन्त्र और इष्टोपदेश में आचार्य पूज्यपाद ने आत्मा का विवेचन जिस गहराई से प्रस्तुत किया है उससे आचार्य कुन्दकुन्द की आध्यात्मिक विचारधारा का सहज ही स्मरण हो आता है। __ आचार्य पूज्यपाद संस्कृत भाषा के प्रौढ़ विद्वान् थे। इसकी पुष्टि उनके द्वारा तत्त्वार्थसूत्र पर लिखित सर्वार्थसिद्धि नामक टीका ग्रन्थ से होती है। क्योंकि इसकी भाषा अत्यन्त परिष्कृत एवं प्राञ्जल है। टीका ग्रन्थ होते हुये भी सर्वार्थसिद्धि को एक स्वतन्त्र ग्रन्थ के रूप में मान्यता प्राप्त है। परवर्ती आचार्य भट्टाकलकदेव ने बिना किसी परिवर्तन के इसकी सैकड़ों पंक्तियों को वार्तिक के रूप में आत्मसात् करके आचार्य पूज्यपाद के वैदुष्य को स्वीकार किया है।
आचार्य पूज्यपाद ने तत्कालीन दार्शनिक प्रस्थानों का न केवल गहन अध्ययन किया था, अपितु उनका मन्थन करके जैन सिद्धान्त के आलोक में उनका खण्डन भी किया है। इससे आचार्य पूज्यपाद की तर्कविदग्धता का ज्ञान होता है।
किसी भी भाषा के शुद्ध ज्ञान एवं तद्गत उसके सूक्ष्म रहस्यों को जानने के लिये उस भाषा के व्याकरण को जानना परमावश्यक है। आचार्य पूज्यपाद कोरे संस्कृतज्ञ नहीं थे, अपितु वे परिष्कृत वैयाकरण भी थे। उनके इस वैयाकरण रूप व्यक्तित्व को अनेक पदवी आचार्यों ने रेखाङ्कित किया है। आचार्य जिनसेन ने अपने आदिपुराण में कहा है कि- देव अर्थात् पूज्यपाद के वचनमयतीर्थ अर्थात् शब्दशास्त्र रूप व्याकरण विद्वानों के वचनमल को नष्ट करने वाला है।' वादिराज सूरि ने पार्श्वनाथचरित के प्रारम्भ में कहा है कि-देव अर्थात् पूज्यपाद के द्वारा शब्दों की सिद्धि अच्छी तरह से होती हैं।' आचार्य शुभचन्द्र ने अपने पाण्डवपुराण के प्रारम्भ में आचार्य पूज्यपाद को व्याकरण रूपी समुद्र को पार करने वाला कहा है।' आचार्य शुभचन्द्र ने ज्ञानार्णव के प्रारम्भ में देवनन्दी को नमस्कार करते हुये कहा है कि उनके वचन प्राणियों के काय, वचन और मन सम्बन्धी दोषों को दूर करते हैं, अर्थात् उनके वैद्यकशास्त्र से शरीर के, व्याकरणशास्त्र से वचन के और समाधिशास्त्र से मन के विकार दूर हो जाते हैं।
उपर्युक्तअनेक आचार्यों के ये कथन वस्तुतः आचार्य पूज्यपाद के परिष्कृत