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अनेकान्त-57/1-2
बाह्य कलापक्ष जहाँ प्रेय प्रतीत होगा वहाँ अन्तरंग भावपक्ष श्रेयस् की सिद्धि का साधन भी बनेगा।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है आचार्य विद्यासागर महाराज के शतकों ने बीसवीं शताब्दी के संस्कृत साहित्य में आध्यात्मिक विवेचना के साथ-साथ काव्यसरणि का आश्रय लेकर नवीन भावराशियों का स्मरणीय उपहार दिया है। उनके शतकों के समावेश के निःसन्देह सुरभारती का भण्डारगार समृद्धतर होगा।
सन्दर्भ 1 कठोपनिषद् 1/2/2, 2. ध्वन्यालोक, प्रथमानन 3. कारणान्यथ कार्याणि सहकारीणि यानि च।
रत्यादे. स्थापिनो लोके तानि चेन्याट्यकाव्ययो ।। विभावानुभावास्तत् कथ्यन्ते व्यभिचाणिः ।
व्यक्त. स तैर्विभावाद्यै. स्थायी भावो रसः स्मृत ।। -काव्यप्रकाश 1/27-28 4 अलंकारचिन्तामणि 5/84 5 शृगारहास्यकरुणरौद्रवीरभयानकाः ।
बीभत्साद्भुतशान्ताश्च नव नाट्ये रसा' स्मृताः।। -काव्यालकारसारसग्रह 6. अनुयोगद्वारसूत्र, द्वितीय भाग पृ 8, 7. नाटकसमयसार (बम्बई प्रकाशन) पृ. 392-393 8. सुनीतिशतक, 22, 9. श्रमणशतक, 38, 10 निरञ्जनशतक, 82, 11. भावनाशतक, 1 12. परिषहजयशतक, 15, 13. सुनीतिशतक, 20, 14. वही, 39, 15 सुवृत्ततिलक, तृतीय विन्यास 13 16. यस्या पादे प्रथमे द्वादशमात्रस्यथा तृतीयेऽपि।
अष्टादश द्वितीये चतुर्थके पञ्चदश सार्या ।। -श्रुतबोध 17. श्लोके पष्ठं गुरु ज्ञेयं सर्वत्र लघु पंचमम्।
द्विचतुष्पादयोर्हस्वं सप्तमं दीर्घमन्ययोः ।। -श्रुतबोध 10 18. एतयोः (इन्द्रवज्रोपेन्दवज्रयोः) परयोश्च संकर उपजातिः। -छन्दोऽनुशासन 2/56, 19. द्रुतविलम्बितमाह नभौ भरौ। -वृत्तरत्नाकर 3/50, 20. द्रष्टव्य-शृंगारार्णवचन्द्रिका 1/35-47 तथा अलकारचिन्तामणि 1/85-93, 21. शृंगारार्णवचन्द्रिका 1/33, 48-60 (गणों की शुभशुभता)।, 22. काव्यालंकारसूत्र, 1/2 23. शब्दार्थयोरस्थिरा ये धर्माः ये शोभातिशायिनः। रसादीनुपकुर्वन्तोऽलंकारास्तेऽगदादिवत् ।। -साहित्यदर्पण 10/1
- उपाचार्य एवं अध्यक्ष-संस्कृत विभाग एस. डी. (पी.जी.) कॉलेज मुजफ्फरनगर