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________________ अनेकान्त - 57/1-2 कुमकुम के बिना स्त्री का ललाट, उद्योग के बिना देश, सम्यग्दर्शन के बिना चारित्र और शान्तरस के बिना काव्य सुशोभित नहीं होता है। केवल नग्नता ही भवमुक्ति का कारण नहीं है। 1 इच्छायें नरक का द्वार हैं 1 सागार और अनगार दोनो को कर्मक्षय के लिए ही धर्म में लीन होना चाहिए । विनयपूर्वक दिया गया दान प्रशस्त होता है । व्रतों में शील, दमन में रसना इन्द्रियदमन, दानों में अभयदान और धर्मो में अहिंसा श्रेष्ठ है । सुनीति., दुःख का मूल कारण शरीर का धारण करना है । जैसी मति वैसी गति तथा जैसी गति वैसी मति होती है। व्यभिचारी अविवाहित से स्वदार संतोषी विवाहित श्रेष्ठ है। भाग्य की अनुकूलता में जगत् प्रसन्न तथा पापोदय में अप्रसन्न होता है। निज शुद्धभाव ही ध्येय, प्रमेय एवं सुधासम पेय है । सुनीति., धन के बिना गृहस्थ और धन से युक्त मुनि का जीवन आकाशपुष्प एवं इक्षुपुष्प के समान निष्फल है । मोक्षमार्गी के लिए अल्पपरिग्रह भी विघ्न है । जिनवाणी का आश्रय पापियों को विषय कषाय की पुष्टि के लिए तथा विपरीत को पुण्य के लिए साधन बनता है। सुनीति., पाप पाप से नहीं धुलता, पुण्य पुरुष को पावन बनाता है। सुनीति., भोग भवबन्धन का कारण तथा योग संसार संतरण का सेतु है। सुनीति., इन्द्रियविषयानुराग दुःखद और धर्मानुराग सुखद होता है। सुनीति., सुनीति., सुनीति., सुनीति., सुनीति., 54 सुनीति., 57 सुनीति., 60 71 76 85 57 सुनीति., सुनीति., सुनीति., 20 24 29 31 35 37 44 50 52 इन मूल्यपरक शिक्षाओं के द्वारा मानव-जीवन प्रशस्त बन सकता है। अतः श्रेयोमार्ग के पथिकों के लिए इनका महत्त्वपूर्ण स्थान है। आचार्यश्री ने इन शतकों का प्रणयन आत्महित के साथ-साथ श्रमणों के हित किंवा मानवमात्र के हित को सम्पादित करने के लिए किया है। अतः हितेच्छुओं के लिए इनका
SR No.538057
Book TitleAnekant 2004 Book 57 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2004
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size9 MB
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