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________________ अनेकान्त-57/1-2 श्रमण., 26 जीवनमूल्यपरक शिक्षायें नीर मन्थन से नवनीत कैसे उत्पन्न हो सकता है? जो पूर्ण प्रयत्न से इन्द्रियों को जीतना है, वह यति है। श्रमण., दुःखदायक जगत् में मिथ्यात्व विषधर सर्प है। श्रमण., 32 जैसे जलज जल से वैसे आत्मा को संसार से पृथक् मान। श्रमण., समयसार (शुद्धात्म परिणाम) ही संसार में सार है। श्रमण., मात्र नग्न वेष ही मोक्ष का उपाय नहीं है। श्रमण., दोनो नय दो नयनों के समान हैं। निरञ्जन; नीर दूध में पड़कर दूध बन जाता है। निरञ्जन; 22 गुरुमुख को छोड़कर क्षणिक जगत् अच्छा नहीं लगता है। निरञ्जन; कौन ज्ञानी घी छोड़कर मट्ठा की इच्छा करता है। निरञ्जन; 82 ज्ञान रूपी दीपक से जिनेन्द्र का अवलोकन होने लगता है भावना., वस्त्रावृत लौह पारस से भी स्वर्ण नहीं बन सकता है। भावना., असमय में बीज के समान अकालवन्दन फलीभूत नहीं है। भावना., दीनों पर दयादृष्टि से दान देने से धर्मप्रभावना होती है। भावना., बुद्धिमान् मुनि शरीर के रोग से नहीं डरता है। परिषह., 67 शास्त्रोपजीवी विद्वान् विद्वत्ता के फल से रहित है। शारीरिक कुलादि के योग से मुनिपना मलिन नहीं होता। सुनीति., 3 पक्षपाती ज्ञानी स्वपरघाती एवं उभयलोक से भ्रष्ट है। सुनीति., 5 अहंकार के लिए धन देने वाला तथा धन-मान के लिए विद्या देने वाला धर्म से दूर है। सुनीति., 7 परिग्रह विद्वेष का मूल कारण है। सुनीति., 9 सत्संगति वाला नियम से श्रेष्ठ बन जाता है। सुनीति., 11 शरीर रोगों का घर और मानसिक पीड़ाओं का स्थान है। सुनीति., 12 अध्यात्मशास्त्र शान्तपरिणामी को अमृत और परिग्रही के लिए विपरूप होता है। सुनीति., 15
SR No.538057
Book TitleAnekant 2004 Book 57 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2004
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size9 MB
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