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________________ कर्मवाद एवं ईश्वरवाद : स्वरूप एवं समीक्षा : जैनदर्शन के संदर्भ में - डॉ. अशोक कुमार जैन भारतीय दर्शन की प्रायः सभी शाखाओं में कर्म और सुख-दुःख का परस्पर हेतु कार्य का संबंध मानते हुए उन पर गंभीरतापूर्वक विचार किया गया 1 दार्शनिक ग्रंथों के अनुशीलन से ज्ञात होता है कि 'कर्म' शब्द का अनेक अर्थो में प्रयोग हुआ है। मीमांसा दर्शन - पशुबलि आदि यज्ञ तथा अन्य क्रियाकाण्ड को कर्म मानता है । वैयाकरण पाणिनि अपने 'कर्तुरीप्सिततमं कर्म' सूत्र द्वारा कर्त्ता के लिए अत्यन्त इष्ट को कर्म कहते हैं । वैशेषिक दर्शन ने अपने सप्त पदार्थों की सूची में कर्म को भी स्थान प्रदान किया है। वैशेषिक दर्शनकार कणाद कहते हैं - जो एक द्रव्य हो - द्रव्यमात्र से आश्रित हो, जिसमें कोई गुण न रहे तथा जो संयोग और विभाग में कारणान्तर की अपेक्षा न करे वह कर्म है।' उसके उत्क्षेपण, अवक्षेपण, आकुंचन, प्रसारण तथा गमन ये पांच भेद कहे गये हैं । 2 नित्य, नैमित्तिक तथा काम्य क्रियाओं को भी कर्म कहते हैं । सांख्यदर्शन ने संस्कार अर्थ में 'कर्म' को ग्रहण किया है। सांख्य तत्त्व कौमुदी' में लिखा है - सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति होने पर भी पुरुष संस्कारवश कर्म के वश से शरीर धारण करके रहता है, जैसे तीव्र गति प्राप्त चक्र संस्कार के वश से भ्रमण करता रहता है । गीता में कार्यशीलता को कर्म बताया है । ' कहा है- अकर्मण्य रहने की अपेक्षा कर्म करना श्रेयस्कर है। संन्यास और कर्मयोग ये दोनों ही कल्याणकारी हैं, किंतु कर्मसंन्यास की अपेक्षा कर्मयोग विशेष महत्त्वास्पद है । ' पतंजलि योगसूत्र' में कहते हैं - क्लेश का मूल कर्माशय-कर्म की वासना है। वह इस जन्म में वा जन्मान्तर में अनुभव में आती है । अविद्यादिरूप मूल
SR No.538057
Book TitleAnekant 2004 Book 57 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2004
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size9 MB
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