________________
50 .
अनेकान्त-57/1-2
(ग) अलंकार
प्रारंभ में काव्य के सभी सौन्दर्याधारक तत्त्वों को अलंकार शब्द से अभिहित किया जाता था। इसी कारण भामह, वामन, रुद्रत आदि आलंकारिकों ने अपने काव्यशास्त्रीय ग्रन्थों के नाम में अलंकार शब्द अवश्य जोड़ा है। वामन ने तो स्पष्ट रूप से कहा है- 'सौन्दर्यमलंकारः' अर्थात् सौन्दर्यकारक तत्त्वों का नाम अलंकार है। धीरे-धीरे यह माना जाने लगा कि जिस प्रकार कटक-कुण्डल आदि आभूषण शरीर को विभूषित करते हैं, उसी प्रकार अनुप्रास-उपमा आदि अलंकार काव्यशरीर शब्दार्थ को विभूषित करते हैं। आचार्य विश्वनाथ के अनुसार अलंकार शब्द और अर्थ के वे अस्थिर धर्म हैं जो अंगद आदि के समान शब्द और अर्थ की शोभा बढ़ाते हैं।
आचार्य विद्यासागर जी महाराज ने अपने शतक काव्यों में वर्णन को प्रभावक एवं शोभन बनाने के लिए शब्दालंकार और अर्थालंकारों का सुष्ठु सन्निवेश किया है। जहाँ एक ओर अनुप्रास की छटा, यमक की मनोरमता,
और चित्रालंकार की विचित्रता पाठकों के अलौकिक आनन्द का संवर्धन करती है, वहाँ दूसरी ओर उपमा, उत्प्रेक्षा आदि अर्थालंकार वर्ण्य विषयों की मञ्जुल अभिव्यज्जना करते है। हाँ वे वहीं-कहीं शब्दालकारों के भार तथा क्लिष्ट संयोजना से आक्रान्त से अवश्य प्रतीत होते हैं। अलंकारों के प्रयोग में कवि को कहाँ तक सफलता मिली है, इसे जानने के लिए उनके द्वारा प्रयुक्त कतिपय अलंकारो के निदर्शन प्रस्तुत हैं।
अनुप्रास- स्वरों की विषमता होने पर भी व्यंजना की समानता में अनुप्रास अलंकार होता है। उसकी चमत्कृति पूर्ण संयोजना में आ. विद्यासागर कुशल है उनके सभी शतककाव्यों में अनुप्रास की छटा विद्यमान है यथा
परपदं हयपदं विपदास्पदं निजपदं निपदं च निरापदम् । इति जगाद जनाब्जरविर्भवान् यनुभवन् स्वभवान् भववैभवान् ।।
-निरजनशतक, 3 यहाँ पर प, द आदि की आवृत्ति की सुन्दर योजना हुई है।