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________________ अनेकान्त-57/1-2 यमक- आचार्य विद्यासागर का यमक अलंकार के प्रति तो विशेष आग्रह है। सार्थक होने की दशा में भिन्नार्थक स्वख्यंजन समूह की उसी क्रम से आवृत्ति को यमक अलंकार कहते हैं। इस अलंकार का सभी शतकों में प्रचुर प्रयोग है। श्रमण शतक में तो इसका बाहुल्य है। यथा यत् संसारे सारं स्थायीतरमस्ति सर्वथाऽसारम् । सारं तु समयसारं मुक्तिर्यल्लभ्यते साऽरम् ।। -श्रमणशतक, 37 यहाँ पर चारों पादों के अन्त में 'सारम्' स्वख्यंजनसमूह की आवृत्ति में पादान्त यमक है। चित्रालंकार (मुरजबन्ध)- चित्र वह अलंकार है जिसे पढ़कर पाठक को आश्चर्य होता है, क्योंकि इनके विन्यास से एक विशिष्ट आकृति बन जाती है भावना शतक में सोलहकारण भावनाओं के वर्णन में प्रत्येक भावना के अन्त में कवि ने एक-एक मुरजबन्ध चित्रालंकार का प्रयोग किया है। मुरजबन्ध अनेक प्रकार का होता है। श्लोक के प्रथम पाद का तृतीय पाद के साथ मुरजबंध का उदाहरण इस श्लोक से देखा जा सकता है दिव्यालोकप्रदानेशदर्शनशुद्धिभास्करः। भब्याब्जककदा वाशस्पर्शकोंशुशुंभाकरः।। -भावनाशतक, 10 मुरजबंध दि व्या लो क प्र दा ने श भ व्या ब्ज क क दा वा श यहाँ प्रथम पाद के प्रथम अक्षर तथा तृतीय पाद के द्वितीय अक्षर को मिलाने से प्रथमपाद के समान पढ़ा जा सकता है। मुरज नामक वाद्य यन्त्र के समान आकृति बनने से यह मुरजबन्ध नामक चित्रालंकार कहलाता है।
SR No.538057
Book TitleAnekant 2004 Book 57 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2004
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size9 MB
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