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बीसवीं शती के संस्कृत साहित्य में आचार्य विद्यासागर जी का योगदान
-डॉ. जय कुमार जैन अनादिकाल से जगत् में दो विचारधारायें पल्लवित रही हैं-श्रेयोमार्ग और प्रेयोमार्ग। कठोपनिषद् में कहा गया है कि विवेकी व्यक्ति प्रेय की अपेक्षा श्रेय को वरेण्य मानता है जबकि अल्पज्ञ व्यक्ति योगक्षेम के कारण प्रेय का चयन करता है
श्रेयश्च प्रेयश्च मनुष्यमेतस्तौ सम्परीत्य विविनक्ति धीरः। श्रेयो हि धीरोऽभिप्रेयसो वृणीते प्रेयो मन्दो योगक्षेमाद् वृणीते।' भारतीय चिन्तन मूलतः आध्यात्मिक रहा है। फलतः भारतीय प्रज्ञा ने काव्य को मात्र आनन्द का साधन न मानकर परम पुरुषार्थ मुक्ति का भी साधन स्वीकार किया है। भारतीय दष्टि पाश्चात्य विचारकों के समान काव्य का प्रयोजन लौकिक आनन्द प्रेय ही नहीं अपितु पारमार्थिक आनन्द/श्रेय भी मानता है। जैन धर्म निवृत्तिप्रधान धर्म है। इसमें जो कुछ प्रवृत्तिपरक दृष्टिगोचर होता है, वह भी निवृत्ति का ही सहायक है। अशुभ से प्रयत्नपूर्वक निवृत्ति तथा शुभ से भी स्वतः निवृत्ति ही जैन धर्म का लक्ष्य है। पूर्ण निवृत्ति या मुक्ति परम सुख स्वरूप है, अतः जैन धर्म प्राणी मात्र को मुक्ति प्राप्ति का उपदेश देता है।
संस्कृत भाषा जिस भारतीय संस्कृति की संवाहक रही है, भारत की वह संस्कृति अनेक सम्प्रदायों की देन से समृद्ध हुई है। संस्कृत साहित्य का विशाल भण्डार भारत के तीन प्रमुख सम्प्रदायों-वैदिक, जैन और बौद्ध मनीषियों की सेवा से समृद्ध रहा है। अतः भारतीय संस्कृति के सर्वागीण ज्ञान के लिए इन तीनों धाराओं के साहित्य का समीचीन मूल्यांकन आवश्यक है। एक विशिष्ट