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अनेकान्त-57/1-2
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स्पर्धकों का प्रति समय अनंतगुणा हीन होकर उदीरणा होना क्षयोपशम लब्धि है। इससे घातिया-अधातिया अप्रशस्त कर्मो की शक्ति हीन-हीन होकर उदय में आती रहती है। साधक बुद्धि पूर्वक उपयोग तत्त्वग्रहण-धारण में लगाता है। परिणाम भी शुभ-शुभतर विशुद्ध होते हैं। द्रव्यानुयोग सापेक्ष प्रथमानुयोग की प्रधानता पूर्वक भावना होती है। (2) विशद्धि लब्धि :- तत्त्व ग्रहण-धारण करने योग्य मंद-मंदतर कषाय रूप भाव जिससे धर्मानुराग और तत्त्व जिज्ञासा के शुभ भाव होते हैं। यह मिथ्यात्व एवं चारित्र मोहनीय कर्म के मंद उदय या उदीरणा किये गये अनुभागी स्पर्धकों के निमित्त से होने वाले परिणाम हैं जिसे विशुद्धि लब्धि कहते हैं। इन शुभ परिणामों से सातावेदनीय आदि प्रशस्त प्रकृतियों का बंध होता है। अप्रशस्त कर्म बंध सकता है। तत्त्वग्रहण-धारण एवं धर्मानुराग में बुद्धि पूर्वक उपयोग लगता है। शुभतर विशुद्ध परिणाम होते हैं। द्रव्यानुयोग सापेक्ष चरणानुयोग की मुख्यता से व्रत-विधान, शुभाचार में तत्परता होती है। पापों का त्याग अभिप्रेत है। विशुद्ध भाव की अपेक्षा काललब्धि । शुद्धिभाव उपमान। धारणालब्धि-अनुकंपा। विरति विशुद्धि लब्धि का गमक है। क्षयोपशमलब्धि
और विशुद्धिलब्धि के मध्य कारण-कार्य सम्बन्ध एक सिक्के के दो पहलू हैं। (3) देशनालब्धि :- आचार्य आदिक उपदेश कर्ताओं से जीवादिक तत्त्वों के श्रवण ग्रहण, धारण, निर्धारण आदि की जिज्ञासा और शक्ति को देशनालब्धि कहते हैं। इस प्रकार तत्त्वों आदि का उपदेश मिलना और उपदेशित पदार्थो का
ज्ञान में धारण करना या होना देशनालब्धि है। इसके दो प्रकार हैं| 1. बाह्यदेशनालब्धि (युधा-यथार्थ-तत्त्व उपदेशक आचार्य-शास्त्रों की प्राप्ति, वेदनानुभव, जाति स्मरण, धर्म श्रवण, जिनबिंब दर्शन एवं देव ऋद्धि दर्शन आदि। 2. अंतरदेशनालब्धि यथा उपदिष्ट अर्थ को ग्रहण, धारण विचारण की शक्ति। तत्त्व ग्रहण-धारण में बुद्धि पूर्वक उपयोग लगता है। दर्शन मोहनीय कर्म की मंदता से तत्त्वग्रहण की जिज्ञासा होती है। बुद्धिपूर्वक शुभतर विशुद्ध परिणाम होते हैं। चरणानुयोग सापेक्ष द्रव्यानुयोग की मुख्यता होती है। अष्टमूलगुणों का धारी या पॉच अणुव्रत या महाव्रतधारी धर्मश्रवण का पात्र