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________________ अनेकान्त-57/1-2 आत्म दर्शन का सूचक है, यह एक विधि है। (10) शुद्ध भाव से उपयोग शुद्ध होता है उससे आत्मा शुद्ध होता है। त्रिदोष रूप अविद्या को उपेक्षा नामक विद्या से काटने पर स्वरूप व्यक्त होता है और आत्म गुणों का विकास होता है। परम ब्रह्म आत्मपद की प्राप्ति हेतु साधक सोऽहं शब्द, ब्रह्म से मन को संस्कारित करता है पश्चात् अधोमुख द्रव्यमन रूप कमल में ध्यान रूप सूर्य के द्वारा कमल के अंदर स्फुरायमान परम ज्योति स्वरूप का अनुभव करना चाहिये। इससे मोहान्धकार नष्ट होता है और इन्द्रिय तथा मन रूप वायु का संचार रुकने पर पर-पदार्थो से शून्य तथा सम्यग्दर्शनादि गुणों से अशून्य आत्मा ही अंतरदृष्टि में दिखाई देता है। इस प्रकार आत्मलीन योगी आत्मदर्शन करता हुआ अधिक संवर-निर्जरा करता है और आनंद को भोगता है। (11) आत्मयोगी द्वारा स्वानुभूति की वृद्धि की उत्तरोत्तर भावना भाकर अपने रत्नत्रयात्मक निजभाव का भोक्ता बने रहने की भावना करना। (12) शुद्धात्मभावना का फल शुद्धात्मा की प्राप्ति है। परमानन्द में लीन हुआ योगी निर्भय होता है। ज्ञानी आत्मा स्वयं ही अचिंत्य शक्ति वाला देव है, चिन्मात्र चिंतामणि है। मतिज्ञानादि रूप हीन ज्ञान कला से केवलज्ञान रूप सम्पूर्ण ज्ञान कला का विकास ज्ञानाभ्यास से ही होता है। इसकी पुष्टि करते हुए आचार्य कुन्दकुन्द का निम्न कथन मननीय है एदम्हि रदो णिच्छं संतुट्ठो होहि णिच्चमेदम्हि एदेण होहि तित्तो होहदि तुह उत्तम सोक्खं। (समयसार 206) अर्थात् ज्ञान में नित्य प्रीति वाला हो, इसमें नित्य सन्तुष्ट हो और इससे तृप्त हो; तुझे उत्तम सुख मिलेगा। __ इस प्रकार ज्ञान स्वरूपी आत्मा का ज्ञानमात्र आत्मा में लीन होना उसी में संतुष्ट-तृप्त होना परम ध्यान है। उसी से वर्तमान में आत्मानंद का अनुभव एवं अल्पकाल में ज्ञानानन्द स्वरूप केवलज्ञान की प्राप्ति होती है। इस प्रकार
SR No.538057
Book TitleAnekant 2004 Book 57 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2004
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size9 MB
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