SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 29
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 26 अनेकान्त-57/1-2 से आत्म-लक्ष्य को अनुभव करे-जाने वह संवित्ति दिव्य दृष्टि है। यह सर्व विकल्पों को भस्म करती है और परमब्रह्म रूप योगीजनों द्वारा उपादेय-पूज्य है। उक्त सोपानों की प्राप्ति हेतु आत्माभिमुखी आत्मा निम्न भावनाएँ भाता है एवं धारणा करता है(1) कर्तृत्व-भोक्तृत्व भाव के विसर्जन हेतु अकर्ता-अभोक्ता स्वरूप की भावना। (2) रागादिक विभाव भावों के प्रति स्वामित्व विसर्जन हेतु उनके विनाश तथा शुद्ध-बुद्ध-चिद्रूप आत्मा की भावना। (3) कर्म और कर्मफल से आसक्ति घटाकर हेतु द्रव्यकर्म-भावकर्म एवं नोकर्म के त्याग की भावना। उनसे उपेक्षा धारण करना। (4) स्वात्मोपलब्धि हेतु हेय-उपादेय, सत्-असत् आदि का ज्ञान और तदनुसार शुद्धात्मतत्त्व के ग्रहण की भावना। (5) अहंकार-ममकार कर्तृत्व-भोक्तृत्व भाव के विसर्जन हेतु भगवती-भवितव्यता से आश्रय-ग्रहण की भावना। कार्यत्याग रूप निष्क्रियता अनिष्टकर है मात्र कर्तृत्व भाव विसर्जित किया है। (6) स्व-समर्पण हेतु आत्मा के अद्वैत-सच्चिदानन्द स्वरूप की प्रबल भावना जिसके निरंतर अभ्यास से आत्मा आत्मा में लीन होता है और स्वानुभव पूर्वक अतीन्द्रिय-स्वाधीन सुख पाता है। आत्मानुभव हेतु हृदय में परम ब्रह्म स्वरूप शुद्धात्मा के स्फुरण की भावना जिससे देह-देवालय में आत्मप्रभु का दर्शन होता है। 'मैं ही मैं हूँ' ऐसे अंतर जल्प के परित्याग और विकल्परहित, वचन-अगोचर अविनाशी आत्म-ज्योति-दर्शन की भावना। (9) 'मैं ही मैं हूँ' के अंतर जल्प के त्याग एवं अंतरवर्ती उपयोग द्वारा आत्मा के साथ उसका तादात्म्य आत्मभूतता का सूचक है। ऐसी स्थिति में हृदय जिसका चित्र खींचता है उस-उसको यह आत्मा नहीं है-ऐसा समझकर छोड़ना चाहिये। हृदय में विकल्पों को न उठना या रुक जाना
SR No.538057
Book TitleAnekant 2004 Book 57 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2004
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy