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अनेकान्त-57/3-4
प्रमुख सेनापति राजा मानसिंह का राज्य था। कवि ने संवत 1690 में वहीं बैठकर रचना की है तथा वहां के तत्कालीन वैभव का वर्णन किया है। मोजमाबाद में संवत 1694 में विशाल पंचकल्याणक प्रतिष्ठा कराने वाले नानूगोधा भी महाराजा मानसिंह के आमात्य थे तथा सदैव मानसिंह के साथ रहते थे। बंगाल विजय, अफगानिस्तान युद्ध में उनके साथ रहकर वहां जैन प्रतिमाएँ भी विराजमान की जो आज भी उपलब्ध होती हैं।
ग्रन्थ के अंत में लेखक प्रशस्ति अत्यंत महत्वपूर्ण एवं ऐतिहासिक तथ्यों का दिग्दर्शन कराने वाली है। इसमें जयपुरनगर, राजा का नाम तथा छाजूलाल साह की वंशावली तथा चौधरियों के चैत्यालय (मन्दिर) में प्रति लिखवाकर विराजमान करने का उल्लेख है
लेखक प्रशस्ति जंबूदीप दीप सिणगार, षटखंड तामाही विस्तार । जामै आरिजखंडमहान, तामद्धिदेस ढुंढाहरजान।। 103 ।।
जै नगर सोभा अतिसार, राज करै जैसिंध अवतार । ईतिभीति जैठे कहु नाहि, जिन मन्दिर सोभाती छाहि।। 104 ।। जैनधर्म को भलो उजास, जैनीजन को तहां है वास। चोपडि बिचि तहां सोभासार, तामद्धि है आवैरि बजार ।। 105 ।।
ताहा मन्दिर चोधरिपातणौ, रिखवदेव नेमीसर भणे। राजै और मूरति जिनतणी, दरसन करिपातै अघहरणि।। 106 ।।
नित्य पूजा जहां होय सुकाल, रातदिवस श्रुतबचै बिसाल। सुणि नरनारी हर लहाय, आनंद उस में अति ही पाय ।। 107 ।।
होली का चरित्र है सही जान, जामद्धि धर्म तणो व्याख्यान। ताहिलिखाय चढायो सही, पुण्य तणी महिमा अति कही।। 108।।