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बनेकान्त-57/3-4
हिन्दी के किसी कवि ने भी कहा है
वहता पानी निर्मला, बन्धा सो गन्दा होय।
साधु तो रमता भला दाग न लागे कोय।। साधु व्रती श्रेष्ठ कहा गया है जो एक स्थान छोड़कर दूसरे स्थानों को जाता है। साधु के निवास के विषय में शास्त्रों में विशद विवेचन किया गया है। वे मुनिराज पहाड़ों पर ही पर्यकासन अर्धपर्यकासन व उत्कृष्ट वीरासन धारण कर व हाथी की सूंड के समान आसन लगाकर अथवा मगर के मुख का सा आसन लगाकर अथवा एक करवट से लेटकर अथवा कठिन आसनों को धारण कर पूर्ण रात्रि बिता देते हैं। ___ भट्टाकलंकदेव साधु के योग्य निवास के सम्बन्ध में लिखते हैं "शय्या और आसन की शुद्धि में तत्पर साधु को स्त्री, क्षुद्र, चोर, महापापी, जुआरी, शराबी और पक्षियों को पकड़ने वाले पापी जनों के स्थान में वास नहीं करना चाहिए तथा श्रृंगार विकार, आभूषण, उज्जवल वेश, वेश्या की क्रीड़ा से अभिराम (सुन्दर) गीत नृत्य वादित्र आदि से व्याप्त शाला आदि में निवास का त्याग करना चाहिए। शयनासन शुद्धि वाले हैं संयतों को तो अकृत्रिम (प्राकृतिक) पर्वत की गुफा वृक्ष, से नहीं बनाये गये हो और जिनके बनने बनाने में अपनी
ओर से किसी तरह का आरम्भ नहीं हुआ है ऐसे स्वाभाविक रीति से (अकृत्रिम) बने हुए पर्वत की गुफाएं या वृक्षों के कोटर आदि तथा बनवाये हुए सूने मकान वसतिका आदि अथवा जिनमें रहना छोड़ दिया गया है अथवा छुड़ा दिया गया है ऐसे मोचितावास आदि स्थानों से रहना चाहिए।
वर्तमान में वसतिकाएं निर्माण की होड़ लगी हुई है चाहे वह किसी भी नाम से निर्मित करायी जाय। हाँ गृहस्थ का आवास आठ दस कमरों का हो सकता है किन्तु मुनि की वसतिकाएं बहुमजली इमारतों से युक्त विशाल परिसर में नाना विभागों से अलंकृत होने से ही गौरव है। तभी तो मुनि या आर्यिका पचास लाख या करोड़ों की परियोजना में जुटे हुए हैं। ऐसा करने में ही तो पूर्वाचार्यों के कथन का उल्लंघन कर अपना श्रेष्ठत्व