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अनेकान्त-57/3-4
पर रहते हैं, उनकी सल्लेखना समाधि भी आगमोक्त रीति से कैसे संभव है? अतः वर्तमान में मुनि/आर्यिका/त्यागी/व्रती सभी को विचार करना चाहिए कि जीवन भर की सार्थकता निहित स्वार्थ के कारण न खो जाय।
मूलाचार प्रदीप में कहा है-प्रासुक स्थान में रहने वाले और विविक्त एकान्त स्थान में निवास करने वाले मुनि किसी गाँव में एक दिन रहते हैं और नगर में पाँच दिन रहते हैं। सर्वथा एकान्त स्थान को ढूँढ़ने वाले और शक्लध्यान में अपना मन लगाने वाले मुनिराज इस लोक में गंध-गज (मदोन्मत्त) हाथी के समान ध्यान के आनन्द का महासुख प्राप्त करते हैं। 31-32
आचार्य शिवार्य वसतिका आदि में ममत्व के अभाव को भी अनियतविहार मानते हैं
वसधीसु य उवधीसु य गामे णयरे गणे य सण्णिजणे।
सव्वत्थ अपडिबद्धो समासदो अणियदविहारो।। भग. आ. 153 ___ वसतिका में, उपकरण में, ग्राम में, नगर में, संघ में, श्रावकों में ममता के बन्धन को न प्राप्त होने वाला अनियतविहार करने वाला साधु है। अर्थात् जो ऐसा नहीं मानता कि यह वसतिका मेरी है, मैं इसका स्वामी हूँ सभी परद्रव्यों, परक्षेत्रों, परकालों से नहीं बंधा हूँ वह अनियमितविहार करने वाला है।
उक्त सभी लाभ अनियतविहार करने वाले को ही प्राप्त हो सकते हैं, जो एक स्थान पर रहकर धर्म का पालन करना चाहें, वह संभव नहीं है।
साध को निरन्तर विहारी होने के कारण श्रेष्ठ कहा है कवि ऋषभदास ने कहा है
स्त्री पीहर, नरसासरे संयमियां थिरवास। ऐ वणवे जलखामणा जो मण्डेचिरवास।।
अर्थात् स्त्री का मायके रहना, पुरुष का ससुराल में रहना और साधुओं का एक स्थान पर रहना तीनों ही अनिष्टकारी हैं।