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________________ अनेकान्त-57/3-4 अनियतविहार करने में अनेक देशों का आश्रय लेना पड़ता है जिसमें संवेग वैराग्य आदि अनेक गुणों को धारण करने वाले अनेक आप्तजनों के पूज्य पुरुषों के दर्शन होते हैं। तीर्थङ्करों को जहाँ जहाँ केवलज्ञान प्रगट हुआ है अथवा जहाँ जहाँ निर्वाण प्राप्त हुआ है उन समस्त तीर्थक्षेत्रों के दर्शन प्राप्त होते हैं। अनेक उत्तमोत्तम आचार्यों के दर्शन से धीरता वैराग्य आदि तथा उत्तम गुणों से स्थिरता प्राप्त होती है और विद्यारूपी धन की प्राप्ति होने से निश्चित अर्थो के समूह का ज्ञान होता है। __ अनियतविहारी साधक की सल्लेखना भी ठीक तरह से होती है क्योंकि वह जगह-जगह विहार करते रहने के कारण उन स्थानों में भी परिचित होता है, जहाँ धार्मिकता होती है। एकान्त, शान्त, निराकुलता रह सकती है। नियतवासी प्रायः स्थान विषयक अथवा अपने निकटस्थ लोगों के प्रति रागभाव रखने लगते हैं अतः दूसरे अपरिचित स्थान और मनुष्यों के बीच पहुंचकर साधक भली प्रकार से सल्लेखना ग्रहण कर आत्मकल्याण कर सकता है कहा भी है सद्रूपं बहुसूरि भक्तिकयुतं क्षमादि दोषोज्झितं, क्षेत्रपात्रमीक्ष्यते तनुपरित्यागस्य निःसंगता। सर्वस्मिन्नपि चेतनेतर बहिः संगे स्वशिष्यादिके, गर्वस्यापचयः परीषहजयः सल्लेखना चोत्तमा।। मुनिराज को सल्लेखना धारण करने के लिए ऐसे क्षेत्र देखने चाहिए, जहाँ पर राजा उत्तम धार्मिक हो, जहाँ के लोग सब आचार्यादिकों की बहुत भक्ति करने वाले हों तथा जहाँ के लोग आचार्यादिकों की बहुत भक्ति करवाने वाले हों। जहाँ पर निर्धन और दरिद्र प्रजा न हो। इसी प्रकार पात्र ऐसे देखने चाहिए जिनके शरीर त्याग करने में भी निर्मोहपना हो तथा अपने शिष्यादिकों में भी अभिमान न हो और जो परिषहों को अच्छी तरह जीतने वाले हों ऐसा क्षेत्र और पात्रों को अच्छी तरह देखकर सल्लेखना धारण करनी चाहिए। उक्त व्यवस्था अनियतविहारी साधु की ही बन सकती है, जो एक स्थान
SR No.538057
Book TitleAnekant 2004 Book 57 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2004
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size9 MB
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